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________________ गाथा परम विजय की “प्रियतम! आप यह मत मानना कि मैं यह सब स्वार्थ के कारण कह रही हूं। हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। दुनिया में स्वार्थ की बात भी होती है, दुनिया को स्वार्थी भी कहा जाता है किन्तु हम जो कह रही हैं वह एक सचाई के साथ कह रही हैं । सचाई यह है - आपका शरीर साधुपन पाल सके, उसके योग्य नहीं है - यह कहते हुए समुद्रश्री ने अयोग्यता का प्रमाण पत्र दे दिया- 'इतना नाजुक और सुकोमल शरीर । वह साधुपन का कष्ट झेल सके, यह संभव नहीं है।' म्हें म्हारे स्वारथ बरजा नहीं, बरजा तुम देख शरीर । इसड़ी सुकुमाल काया रा धणी, किम होसो साहस धीर ।। ‘प्रियतम! आप हमारी बात मान लें अन्यथा आपको पछताना पड़ेगा, कुछ सोचना पड़ेगा तब यह याद आयेगा कि समुद्रश्री ने मुझे ऐसा कहा तो था पर मैंने उसकी बात मानी नहीं।' 'प्रियतम! बाद में पछताओ, इससे अच्छा यह है कि पहले ही जरा समझ लो । जब बाद में पश्चात्ताप होगा तब कोई भी आड़े नहीं आयेगा, काम नहीं आयेगा । आप यह जानते हैं कि संसार भी स्वार्थ का है, कोई दूसरा किसी के काम नहीं आता। आपने यह सुना होगा - मेघकुमार ने दीक्षा ली थी। एक रात में ही यह सोचना पड़ा कि घर चला जाऊं। उनके कौन काम आया ? अभी तो आपको लग रहा है कि सुधर्मा स्वामी की शरण में चला जाऊं पर न सुधर्मा स्वामी काम आएंगे, न कोई दूसरा काम आएगा।' 'प्रियतम! आप शायद स्वयं नीति को जानते हैं। फिर भी मैं आपको एक नीति की बात सुनाना चाहती हूं। Man एक दिन अगस्त्य ऋषि ने संकल्प ले लिया- मैं समुद्र को तीन चुल्लू में पी जाऊंगा। वे समुद्र का जल पीने लगे, समुद्र को पता लग गया। समुद्र गिड़गिड़ाया, बोला- कोई आओ, मेरी सहायता करो। स्वामी! उसने किनको बुलाया ?' 'समुद्रश्री! तुम्हीं बताओ।' ‘प्रियतम! सबसे पहले देवों को बुलाया, फिर श्रीकृष्ण को बुलाया, पृथ्वी को बुलाया, कल्पवृक्ष को आमंत्रण दिया, चन्द्रमा को आमंत्रण दिया, मैनाक आदि पर्वतों का आह्वान किया। किन्तु सहयोग के लिए कोई आगे नहीं आया। प्रियतम! निराश होकर समुद्र बोला पीयूषेण सुरा श्रिया मुररीतुं मर्यादया मेदिनी, स्वर्गंकल्पतरुः शशांककलया श्रीशंकरः शोभितः । मैनाकादिनगाः नगारिभयतो यत्नेन संरक्षिता, मच्चूलूकरणे घटोद्भवमुनिः केनापि नो वारितः ।। मैंने सबका कितना उपकार किया । पीयूषेण सुरा - मैंने देवताओं को तृप्त बनाया। किसके द्वारा? अमृत १७१
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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