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________________ (3) (6h A । । गाथा परम विजय की कनकसेना ने समर्थन किया ऐसा लगता है उसके परिणाम शिथिल हैं। यदि शील पालन का संकल्प मजबत होता तो विवाह की स्वीकृति कभी नहीं देता।' रूपश्री ने कहा-वह अपने मां-बाप की आज्ञा का लोप न हो, इसलिए विवाह कर रहा है। वह हमारी इच्छा का असम्मान कैसे करेगा?' जयंतश्री ने कहा-'हम अपने वाक्-चातुर्य, माधुर्य और सौंदर्य से देवता को मुग्ध कर सकती हैं। यह तो सामान्य पुरुष है।' समुद्रश्री ने कहा-बहनो! हमें अपनी विजय पर पूरा विश्वास है। फिर भी यदि कुछ स्थिति बनेगी तो हम उसका सामना करेंगी। सबने एक स्वर में कहा-'हां, फिर हमें अपना निर्णय बता देना चाहिए।' योग ऐसा मिला-शेष सात लड़कियों के माता-पिता भी वहीं आ गये। सबमें निर्णय जानने की उत्सुकता थी। चिंतन और निर्णय के बाद कन्याओं ने दरवाजा खोला। उन्होंने देखा-सबके माता-पिता प्रतीक्षा में बैठे हैं। आठ पिता, आठ माता और आठ कन्याएं। कन्याओं ने निवेदन किया-पिताश्री! माताश्री! अब आप भी भीतर आ जाएं।' सब भीतरी कक्ष में आए। आसन पर आसीन हए। कुछ क्षण के लिए मौन का साम्राज्य हो गया। मन में इतना उद्वेलन था कि कोई बोल ही नहीं पा रहा था। आखिर दो मिनिट बाद ज्येष्ठ श्रेष्ठी ने मौन खोल, पूछा-'पुत्रियो! क्या चिंतन किया है? कोई निर्णय लिया है?' 'हां, पिताश्री!' 'पुत्रियो! सामाजिक जीवन के लिए यह बहुत बड़ी समस्या है। इस समस्या का समाधान करना है। अब बोलो तुम्हारा निर्णय क्या है?' समुद्रश्री ने सबका प्रतिनिधित्व करते हुए कहा-'पिताश्री! माताश्री! हम सबका सामुदायिक निर्णय है। मैं एक बोल रही हं पर निर्णय हम सबका है। हमने गहराई से सोच लिया है, चिंतन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं हम जम्बूकुमार के सिवाय किसी दूसरे के साथ विवाह नहीं करेंगी।' 'पुत्रियो! तुमने निर्णय तो ले लिया है पर यह कितना कठिन काम है।' 'पिताश्री! जिसने दृढ़ निश्चय कर लिया, उसके लिये दुष्कर क्या है? आदमी में इतनी शक्ति है कि वह चाहे जो काम कर सकता है, इसलिए आप चिंता न करें। दूसरा कोई विकल्प हमारे सामने नहीं है। यह निर्विकल्प निर्णय है।' ज्येष्ठ श्रेष्ठी ने प्रतिप्रश्न किया-'पुत्रियो! क्या तुमने अपने आपको तौल लिया?' ___ परीक्षा के लिए प्रतिप्रश्न करना होता है। जब परीक्षा होती है तब विरोधी तर्क भी सामने आते हैं। विरोधी तर्क के बिना पता नहीं चलता कि मन कितना मजबूत है। १४५
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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