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________________ गाथा परम विजय की 'हां!' 'कहां है संदेश?' संदेशवाहक ने भोजपत्र श्रेष्ठीवर के हाथ में रख दिया। श्रेष्ठीवर ने संदेश पत्र को पढ़ा। पढ़ते ही व्याकुल हो गया। निराश स्वर में पूछा-'क्या बात है?' 'श्रेष्ठिवर! जो है, वह इस संदेश में है। आप इसे पढ़ लें।' सेठ ने सोचा-ऋषभदत्त श्रेष्ठी जैसा घर मिला। और जम्बूकुमार जैसा योग्य वर मिला, दामाद मिला। अब वह मुनि बनने की बात कर रहा है, घर को छोड़ने की बात कर रहा है। एक गहरी उलझन पैदा हो गई। ___ जहां संयोग है, संबंध है, संसार है वहां इस प्रकार की । उलझनें आती रहती हैं। एक चाहता है, दूसरा नहीं चाहता। कहीं कन्या चाहती है, लड़का नहीं चाहता। कहीं लड़का पसंद करता है, कन्या को वर उपयुक्त नहीं लगता। विवाह के बाद भी अनेक समस्याएं आती हैं। ये सारी संबंधों की समस्याएं हैं। अगर संबंध न हो तो उलझनें भी शायद न हो। जहां कोई संबंध नहीं वहां कोई चिंता नहीं रहती। किंतु जहां संबंध है वहां अनेक उलझनें पैदा होती हैं इसीलिए भगवान महावीर ने मुनि के लिए कहा-मुनि संबंधातीत रहे। वह कहीं ममत्व न करे। गामे कुले वा नगरे वा देसे। ममत्तभावं न कहिचि कुज्जा।। मुनि किसी पर ममत्व भाव न करे। न ठिकाने पर, न गांव पर, न देश पर किसी पर ममत्व न करे। वह 'मेरा' किसी को न माने। जहां मेरा माना वहां समस्या पैदा हो गई। 'मेरा' न माने तो कोई समस्या नहीं है। जब यह मानते हैं 'शरीर मेरा' है तो शरीर भी बहुत सताने लग जाता है और दुःख भी बहुत होता है। यह मानें शरीर मेरा नहीं है तो कठिनाई आती है पर दुःख नहीं होता। आचार्य विनोबा भावे ने एक जगह लिखा-जब मैं बच्चा था, सिरदर्द बहुत होता था। जब सिरदर्द बहुत होता तब मैं एकांत में अकेला जाकर बैठ जाता और सिर को पकड़ लेता। फिर गर्दन को, सिर को हिलाता और कहता-'सिर मेरा नहीं है, सिर मेरा नहीं है।' मैं यह रट लगाता, दस-बीस मिनट में सिरदर्द गायब हो जाता। किसी को मेरा मानो तो दर्द है, मेरा नहीं मानो तो किसका दर्द होगा? वह दर्द फिर किसी दूसरे का है। जहां मेरापन नहीं है वहां दर्द नहीं होता। जहां मेरापन जुड़ा, दर्द हो गया। ___आदमी घड़ा लेकर समुद्र के पास गया। सोचा, पहले थोड़ा तैर लूं। वह तैराक था, समुद्र में तैरने लगा। बहुत गहरे में चला गया। तैर कर वापस आया। फिर घड़ा भरा, सिर पर रखा तो भार लगने लगा। १३७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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