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________________ . .. . गाथा परम विजय की क्षायोपशमिक भाव अलग-अलग प्रकार का होता है और औदयिक भाव भी अलग-अलग प्रकार का होता है। जिस व्यक्ति में मोहनीय कर्म का क्षायोपशमिक भाव प्रबल होता है उसका दृष्टिकोण बदल जाता है। उसे चीनी मीठी भी नहीं लगती, फीकी भी नहीं लगती और कड़वी भी नहीं लगती। वह इंद्रिय चेतना से ऊपर उठ जाता है। जहां इंद्रियातीत चेतना की अनुभूति हो जाती है, वहां स्वाद बदल जाते हैं, रस बदल जाते हैं। जिस व्यक्ति में मोह का प्रबल उदय है, वह उसकी बात को समझ ही नहीं सकता। उसे लगता है दनिया में सार है तो धन है, परिवार है, संपदा है, सत्ता है, अधिकार है। यह नहीं मिला तो कुछ भी नहीं मिला। जिस व्यक्ति में क्षायोपशमिक भाव प्रबल है, उसे लगता है कि सार है तो केवल चेतना है। दो दिशाएं हैं-एक है पदार्थ की दिशा और एक है चेतना की दिशा। पदार्थ की दिशा में पदार्थ ही प्रिय लगता है। सारे तर्क पदार्थ को सिद्ध करने में, पदार्थ को पाने में लगते हैं। जिसने पदार्थ को नहीं भोगा, उसका जीवन व्यर्थ चला गया। यह चिन्तन उस भूमिका का चिंतन है, उस चेतना का चिंतन है जो चेतना औदयिक भाव से प्रभावित है, किन्तु जब वही चेतना क्षायोपशमिक भाव से प्रभावित होती है, चिंतन बदल जाता है। बहुत लोग पूछते हैं हम दीक्षा क्यों लें? इस प्रश्न का क्या उत्तर दें? प्राचीन युग में एक घडाघड़ाया उत्तर रहा है-'संसार खारो लागे।' 'संसार लाय है।' यह एक रटारटाया उत्तर था। यह बात ठीक है कि संसार खारा भी है, लाय भी है किन्तु जिसका मोहोदय प्रबल है, वह कहेगा-लाय कहां है? आज तो जहां लाय (अग्नि) लगती है वहां दमकलें आ जाती हैं, उसे बुझा देती हैं। खारा कहां है? क्या भोगों में सुख नहीं है? मिठास नहीं है? ___मानना चाहिए-भीतर में जो कुछ हो रहा है, जो रासायनिक प्रक्रियाएं चल रही हैं, जिस प्रकार का कर्म का विपाक अथवा क्षायोपशमिक भाव होता है वैसा चिंतन बन जाता है। बहुत लोगों ने मुझसे पूछा-आपने दीक्षा क्यों ली? मैंने कहा कोई नियति थी, दीक्षा ले ली। इसके सिवाय कोई उत्तर नहीं दे सकता। ११८
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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