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________________ वह विषनाशक जिनवर भक्ति जिससे आतम जगता है। मन में भरे मदन को मद को आलस को जो दूर करे उन जिन वरपद कमल भक्तिकरपुण्य फलोंको पूरअरे॥२॥ अन्वयार्थ : [अरिहंताणं] अरिहंतों की [ भत्ती] भक्ति [ मोह-विस-विणासणी ] मोह विष का नाश करने वाली [य] और [ सोक्खकरी] सुख करने वाली है [मुच्छा-काम-मदालस दूरगा] मूर्छा, काम, मद, आलस को दूर करने वाली है [ पुण्णं ] पुण्य का [ समासवदि] आस्रव करती है। भावार्थ : अरिहंत भगवान् से ही मोह डरता है। जो व्यक्ति जितना अरिहन्त भक्ति में रुचि रखता है वह उतना ही मोह को जीतने की योग्यता रखता है। यह मोह विष है। इस जहर से मूछित आत्मा स्वरूप को नहीं समझ पाता है। आत्मा अरिहंत भक्ति से जैसे-जैसे मोह विष की शक्ति कम करता जाता है तैसे-तैसे परमात्मा और स्वआत्मा का श्रद्धान, ज्ञान और आनन्द बढ़ता जाता है। आत्मिक अनन्त सुख को करने वाली यह जिनेन्द्र भक्ति मूर्छा, काम भाव, अहंकार और आलस्य, निद्रा आदि को दूर करने में समर्थ है। यह भक्ति पुण्य का आस्रव और बंध करती है जिससे मोक्षमार्ग की अनुकूल सामग्री का लाभ होता है। हे जिनभक्त ! पुण्य दो प्रकार का होता है। पहला पापानुबन्धी पुण्य और दूसरा पुण्यानुबन्धी पुण्य । जिस पुण्य से पाप का बन्ध हो, वह पुण्य भी संसार का कारण है। भगवान् की भक्ति से जो पुण्य बन्ध हुआ उसका फल यदि सौभाग्य और वैभव की चाह हुई तो वह पुण्य पापानुबन्धी पुण्य है। या जिस पुण्य के फल से जीव पुनः पाप कर्म में प्रवृत्त होता है वह पापानुबन्धी पुण्य है। ऐसा पुण्य निदान भाव से प्राप्त होता है। ऐसे ही पुण्य से बचने के लिए शास्त्रों में कहा है कि पुण्णेण होइ विभवो विहवेण जायदे मइमोहो। मइमोहेण दुपावं तम्हा खलु पुण्ण मा होउ॥ अर्थात पुण्य से वैभव मिलता है। वैभव से बुद्धि में मोह उत्पन्न होता है। मति में मोह से पाप उत्पन्न होता है। इसलिए भगवन् ! ऐसा पुण्य मुझे प्राप्त न हो। इसके विपरीत सच्चे जिनभक्त का पुण्य संसार से मुक्ति का कारण होता है। जो पुण्य का फल नहीं चाहता वह निदान रहित जीव सच्चा जिनभक्त है। उसका पुण्य जब फल देता है तो वह पुण्य बुद्धि में मोह उत्पन्न नहीं करता है। अन्ततोगत्वा वह पुण्य उसे वैराग्य दिलाकर कर्म क्षय के लिए योग्य सामग्री और आत्म हितंकर भाव देता है। इसीलिए कहा है कि सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेदु जदि विणिदाणं ण कुणइ॥ अर्थात्- 'सम्यग्दृष्टि जीव का पुण्य संसार का कारण नहीं होता है। वह नियम से मोक्ष का हेतु होता है यदि वह निदान नहीं करता है।' जिनेन्द्र भगवान् की अपार भक्ति करके ही भरत, सगर आदि चक्रवर्ती और राम, हनुमान
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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