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________________ १०. अरिहंत भत्ती जे के वि सिद्धिं गदा जे के सिद्धा भवियं भविस्संति । ते अरिहंताणं भत्तिं किच्चा तम्हा तुमं कुज्जा ॥ १॥ भूत काल में जो नर मुक्ति, गये जा रहे, जाएँगे वे अरिहन्त चरण की भक्ति का फल पाए पाएँगे। जिनकी भक्ति करते करते परिणति सम्यक् हो जाती ऐसी अर्हद् भक्ति करने क्यों तव मति ना लग जाती ? ॥ १ ॥ अन्वयार्थ : [ जे के वि ] जो कोई भी [ सिद्धिंगदा ] सिद्धि को प्राप्त हुए [ जे के ] जो कोई [ सिद्धा ] सिद्ध [ भवियं ] भविष्य में [ भविस्संति ] होंगे [ ते ] वे [ अरिहंताणं ] अरिहंतों की [ भक्तिं ] भक्ति को [ किच्चा ] करके हुए हैं [ तम्हा ] इसलिए [ तुमं ] तुम [ कुज्जा ] करो । भावार्थ : अतीत काल में जो कोई भी सिद्ध हुए हैं, वे कभी न कभी अरिहंतों की भक्ति अवश्य किये हैं। बिना अरिहंत भक्ति के मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । भविष्य में भी जो सिद्ध होंगे वे भी सभी अरिहंत भक्ति से होंगे । इसलिए हे भव्य ! तुम भी अरिहंतों की भक्ति करो । T विचार करो ! जब एक मेंढ़क जिनेन्द्र भक्ति से ओत प्रोत हो पूजा के लिए जा सकता है तो तुम पंचेन्द्रिय मनुष्य होकर पूजा क्यों नहीं करते हो। मेंढक ने बावड़ी में ही सुना था कि भगवान् महावीर का समवशरण या है और विपुलाचल पर्वत पर आज सभी नगरवासी दर्शन के लिए जा रहे हैं। महिलाओं की आपस की इस बातचीत को सुनकर मेंढ़क भगवान् की भक्ति से भर गया । उसने सोचा हम भी भगवान् की भक्ति के लिए जाएँगे । भगवान् की पूजा के लिए और उनके दर्शन के लिए वह खाली हाथ नहीं गया। उसे मालूम था और पूर्व जन्म के संस्कारों से उसे स्मृत हो आया था कि राजा, गुरु और प्रभु के दर्शन को कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। उस मेंढ़क ने एक फूल की पंखुड़ी मुख से तोड़कर मुख में ही दबा ली। बावड़ी से बाहर निकल आया और फुदक-फुदक कर चलने लगा। राजा श्रेणिक पूरे राज-परिवार और समस्त नागरिकों के साथ भगवान् महावीर के दर्शन के लिए जा रहे थे। श्रेणिक राजा के हाथी के पैर से वह मेंढ़क दब गया और मर गया। पूजा - भक्ति के भाव से वह मरकर देवगति में एक ऋद्धिधारी देव बना । वहाँ उसने अन्तमुहूत में ही युवा अवस्था प्राप्त कर जन्म लिया । उसने अवधिज्ञान अपनी देव-पर्याय में उत्पत्ति का कारण देखा तो वह बहुत खुश हुआ। अहो ! जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति के प्रभाव से मैं क्षणभर में स्वर्ग का देव बन गया । वह शीघ्र ही भगवान के समवशरण में पहुँचकर उनका साक्षात् दर्शन कर आह्लादित हुआ। उसी समय राजा श्रेणिक भी पहुँच गए। देवों के द्वारा घिरे हुए भगवान् का दर्शन करके राजा की दृष्टि एक देव के मुकुट पर पड़ी जिस पर मेंढ़क का चिह्न बना था । राजा श्रेणिक ने देव के मुकुट पर मेंढ़क बने
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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