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________________ अन्वयार्थ : [ मणुजभवो ] मनुष्य भव [ खलु ] निश्चित ही [ अथिरो ] अस्थिर है [ साहुसमाहिभावलग्गस्स] साधु समाधि भावना में लगे हुए साधक को [आदवदं] अपने व्रतों को [ संभालिय] संभालकर [ परप्परं] आपस में [कलहो] कलह [परिहरदव्वो] छोड़ देना चाहिए। भावार्थ : यह मनुष्य भव क्षणभंगुर है। आपस में कलह करने से दोनों की समाधि बिगड़ती है। आपस में विवाद करने वाले सभी लोगों को चित्त में कलुषता उत्पन्न होती है। इस तरह से आपस में व्यवहार करें ताकि कलह न होने पाए। साधु समाधि की भावना में लगे साधक को आत्मा के व्रतों की संभाल करनी चाहिए। परस्पर में विवाद करने से व्रतों में दोष लगता है। अहिंसा व्रत भी निर्दोष नहीं पलता है क्योंकि कलह से भाव हिंसा अवश्य होती है। सत्य व्रत भी नहीं पलता है क्योंकि विसंवाद की जड़ असत्य ही होता है। जब कोई अपने सहधर्मी के लिए गलत तभी विवाद होता है। जिसे अपने सधर्मी से संदेह होता है उसे सधर्मी की सही बात भी गलत लगती है। इसलिए किसी के प्रति आश्वस्त नहीं होना भी सत्य व्रत में दोष लगाना है। ऐसी स्थिति में जो व्यक्ति संदेह में रहता है उसे चाहिए कि वह दूसरे के बारे में न सोचे। वह अपनी कार्य क्षमता को बढ़ाए और दूसरे के लिए सकारात्मक उचित सोच रखें। विवाद करने से अचौर्य व्रत में भी दोष लगता है। तत्त्वार्थ सूत्र मे अचौर्य व्रत में विसंवाद को नहीं करना भी एक भावना बताई है। विवाद करने से अपने ब्रह्म आत्मा से बाहर आ गए, यही अब्रह्म है। जब हम किसी पर स्वामित्व की भावना रखते हैं तो हम उसके साथ जबरदस्ती करते हैं। यही परिग्रह पाप है। इसलिए साधु समाधि को बिगाड़ने में परस्पर का विवाद ही पाँचों पाप का मूल कारण है। उपसंहार करते हुए यह भावना कहते हैं साहूसमाहिम्मि सु भावजुत्तो पमादमुत्तो मुणिझाणचित्तो। अप्पम्मि तित्तो परतत्तिमुत्तो साहूविचित्तो जगदो विजुत्तो॥ ९॥ सदा रखे शुभ भाव हृदय में जो प्रमाद से मुक्त सदा चित्त ध्यान में तृप्ति आत्म में पर तृष्णा से मुक्त सदा। वह साधू ही नित समाधि की रहे भावना में तल्लीन जग में रहकर मुक्त रहा है वह ही जग में है परवीन॥९॥ अन्वयार्थ : [ साहूसमाहिम्मिसुभावजुत्तो ] साधु समाधि के शुभ भाव में लगा प्राणी [पमादमुत्तो ] प्रमाद से मुक्त होता है [ मुणिझाणचित्तो ] मुनि के ध्यान में चित्त लगा रहता है [ अप्पम्मि ] अपनी आत्मा में [ तित्तो ] तृप्त रहता है [ परतत्तिमुत्तो] दूसरे में तृप्त नहीं होता है [ साहूविचित्तो ] साधुओं में विचित्र और [ जगदो ] जगत् से [विजुत्तो] विलग रहता है। भावार्थ : सावधान रहने वाले साधक के शुभ भाव सदा बने रहते हैं। जिस साधक को अपनी आत्मा की
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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