SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हुसमाहिभावणा साधु समाधि किसे कहते हैं जा खलु चित्तवसोही किलेसरहिदप्पणो दु परिणामो। झायदि धम्म सुक्कं साहुसमाहिभावणा होदि॥१॥ जिसके चित्त विशुद्धि रहती क्लेश रहित जीवन जीता धर्मध्यान औ शक्लध्यान से आतम अनभव रस पीता। आतम में ये भाव निराले विरले जन में हैं मिलते साधुसमाधि भावना वाले मुनियोंकेमन-मुख खिलते॥१॥ अन्वयार्थ : [जा] जो [ खलु ] निश्चित ही [चित्तविसोही ] चित्त की विशुद्धि है [ किलेस रहिदप्पणो ] क्लेश रहित आत्मा का [दु] जो [परिणामो] परिणाम है [धम्मं] वह धर्म और [सुक्कं] शुक्लध्यान को [झायदि] ध्याता है [ साहु-समाहि भावणा] वह साधु समाधि की भावना [होदि] होती है। धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्याने वाला ध्याता ही साधु साधु-समाधि की भावना करता है। ऐसा ध्यान वही कर सकता है जिसकी चित्त की विशुद्धि है। जिस आत्मा का परिणाम संक्लेश रहित होता है वही धर्म ध्यान का अधिकारी है। समाधि का अर्थ है चित्त का समाधान। चित्त में किसी भी प्रकार की समस्या या उलझन नहीं होना ही चित्त का ध्यान योग्य होना है। श्री षटखंडागम सूत्र ग्रन्थ में इस भावना का नाम है- 'साहुणं समाहिसंधारणदाए'- अर्थात् साधुओं की समाधि संधारणता से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। इसकी व्याख्या में आचार्य श्री वीरसेन स्वामी कहते हैं- कि दर्शन, ज्ञान व चारित्र में सम्यक् अवस्थान का नाम समाधि है। सम्यक् प्रकार से धारण या साधन का नाम संधारण है। समाधि का संधारण समाधि संधारण है और उसके भाव का नाम समाधि संधारणता है। उससे तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। किसी भी कारण से गिरती हुई समाधि को देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचन वत्सल, प्रवचन प्रभावक, विनय सम्पन्न, शीलव्रतातिचार वर्जित और अरहंतादिकों में भक्तिमान् होकर चूँकि उसे धारण करता है इसीलिए वह समाधि संधारण है। आचार्य अकलंक देव कहते हैं कि- जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है उसी तरह अनेक व्रतशीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधु समाधि है। स्वाश्रित साधु समाधि क्या है ?
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy