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________________ वैरग्गसम्मरहिदं हासप्पमुहं पलोहणं चेव। वयणं विज्जदि जस्स य अप्पासुगच्चागदा णाम॥५॥ जिस धर्मोपदेश में ना हो सम्यग्दर्शन अरु वैराग्य जिसमें फूहड़ हास्यपना हो, लोग लुभाना समझे भाग्य। वह उपदेशक प्रासुक त्यागी नहीं कहा है जिनमत में तीर्थंकर पद बन्ध प्रबन्धन भाव नहीं उस आतम में॥५॥ अन्वयार्थ : [वैरग्गसम्मरहिदं] वैराग्य और सम्यक्त्व से रहित [ हासप्पमुहं ] हास्य की प्रमुखता [चेव] और निश्चित ही [ पलोहणं ] प्रलोभन [ जस्स य] जिसके [ वयणं] वचनों में [विजदि ] रहती है [ अप्पासुगच्चागदा णाम ] वह अप्रासुक का त्याग है। भावार्थ : वही वचन प्रासुक परित्याग हैं जो वैराग्य और सम्यग्दर्शन से सहित हों। जिन व्याख्यानों में संसार, शरीर, भोगों से विरागता न हो और सम्यक्दर्शन का भाव न हो वह प्रासुक परित्याग वचन नहीं हैं। इसके साथ-साथ हास्य की मुख्यता वाले उपदेश और श्रोताओं को मात्र लुभावने के उद्देश्य से दिए जाने वाले उपदेश भी प्रासुक परित्याग नहीं है। इस प्रकार के उपदेश करने वाले और सुनने वालों में किसी को भी प्रासुक परित्याग नाम की भावना उत्पन्न नहीं होती है जिससे तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता है। और कौन सा दान प्रासक परित्याग है? दाणं चउप्पयारं समणाणं सावगेहिं सत्तीए। तं पासुअं हि देयं पासुग-परिच्चागदा णाम॥६॥ श्रावक को यह त्याग भावना यथाविधी फल देती है उचित पात्र को दान चतुर्विध बीज सौख्य का बोती है। श्रमण संघ को जो भी देना प्रासुक दो शक्ति अनुसार प्रासक परित्याग भावना फल देती निज भाव विचार॥६॥ अन्वयार्थ : [सावगेहिं ] श्रावक के द्वारा [ सत्तीए] शक्ति अनुसार [ समणाणं] श्रमणों को [चउप्पयारं] चार प्रकार का [तं] वह [ दाणं] दान [पासुअं] प्रासुक [हि ] ही [ देयं ] देने योग्य है [ पासुग परिच्चागदा णाम] यही प्रासुक परित्याग नाम की भावना है। भावार्थ : श्रावक के लिए भी यह भावना कथंचित् हो सकती है। कारण में कार्य का उपचार करने से श्रावक को भी यह भावना का पुण्य बन्ध होता है। श्रावक अपनी शक्ति अनुसार श्रमणों के लिए चार प्रकार का दान देता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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