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________________ भावार्थ : तीर्थंकर देव के अतिरिक्त साधु परमेष्ठी भी प्रासुक परित्यागी होते हैं । जिसमें से प्राण निकल गए हो ऐसा जीव रहित भोजन प्रासुक कहलाता है। एकेन्द्रिय जीवों से रहित प्रासुक भोजन को खाने वाले साधु ही नियम से प्राकभोजी हैं। साधु प्रासुक मार्ग से गमन करते हैं । वह गमन भी सापेक्ष होता है । सापेक्ष का अर्थ है किसी प्रयोजन की अपेक्षा । बिना वजह टहलना, घूमना साधु का निर्दोष गमन नहीं कहा जाता है । साधु देव वन्दना, विहार करना आदि निमित्तों से ही गमन करते हैं। ऐसे साधु के वचन प्रासुक परित्याग नाम पाते हैं। इन वचनों को प्रदान करने की भावना प्रासुक परित्याग भावना है। इस त्याग भावना का नाम श्री षट्खंडागम सूत्र ग्रन्थ में 'साहुणं पासुअपरिचागदाए' आता है। इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य श्री वीरसेन स्वामी श्रीधवला ग्रन्थ में कहते हैं साधुओं के द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्य ज्ञान - दर्शन आदि के त्याग से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुणों के जो साधक हैं, वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गये हैं उसका नाम प्रासुक है । अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वे क्या हैं ? वे ज्ञान, दर्शन, व चारित्रादिक ही हैं । उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन करने को प्रासुक परित्याग और इसके भाव को प्रासुक परित्यागता कहते हैं । अर्थात् दयाबुद्धि से साधुओं द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के परित्याग या दान का नाम प्रासुक परित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में सम्भव नहीं है क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थ में सम्भव नहीं है क्योंकि दृष्टिवाद आदिक उपरिम श्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है। इसमें शेष कारणों की असम्भावना नहीं है, क्योंकि अरहन्त आदिकों में भक्ति से रहित नौ पदार्थ विषयक श्रद्धान से उन्मुक्त सातिचार शील, व्रतों से सहित और आवश्यकों की हीनता से संयुक्त होने पर निरवद्य ज्ञान, दर्शन व चारित्र का परित्याग विरोध होने से सम्भव ही नहीं है । 1 साधु भी इस भावना से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है चाएसु महाचाओ दाणं रयणत्तयस्स धम्मस्स । साहूणं तं कज्जं पासुगपरिच्चागदा णाम ॥ ३ ॥ सभी त्याग में महा त्याग है, रत्नत्रय का त्याग कहा रत्नत्रय ही आत्मधर्म है धर्मदान बड़भाग रहा । बड़भागी जो साधु बना है उसका ही यह कार्य रहा प्रासुक का वह ही परित्यागी श्रमण बना है आर्य महा ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ : [ चाएसु ] सभी त्यागों में [ महाचाओ ] महात्याग [ रयणत्तयस्स धम्मस्स ] रत्नत्रय धर्म का [ दाणं ] दान है [ साहूणं ] साधुओं का [ तं ] वह [ कज्जं ] कार्य [ पासुग-परिच्चागदा णाम ] प्रासुक परित्याग नाम से
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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