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________________ है, चित्त में अनेक वासनाएँ जमा हैं। ऐसी गृहस्थी में ध्यान के बिना निर्विकल्पता का आनन्द कदापि नहीं है। भले ही अविरति सम्यग्दृष्टि को धर्म ध्यान होता है, ऐसा माना है परन्तु वह मुख्यता से नहीं गौण रूप में माना है। सम्यग्दर्शन का सद्भाव मात्र होने से ऐसा माना है, वस्तुतः चित्त की शुद्धि और स्थिरता का अभाव होने से गृहस्थ जीवन में ध्यान कदापि नहीं है। ध्यान के योग्य वही होते हैं जिन्होंने गृहवास का त्याग कर दिया है। कहा भी है शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मनः अतश्चित्त-प्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः॥ ज्ञानार्णव ४/१० अर्थात् गृहस्थ लोग घर में रहते हुए अपने चपल मन को वश में करने में असमर्थ होते हैं, अतएव चित्त की शान्ति के लिए सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड़ दिया है। अरे गृहस्थ! घर में रहकर निर्विकल्प आत्मानुभूति, शुद्धोपयोग की बातें तो छोड़ अभी तू ढंग से धर्म ध्यान करने की पात्रता नहीं रखता है। यदि तू अपने को सम्यग्दृष्टि समझकर मुझे ध्यान होता है, मुझे आत्मानुभव होता है, ऐसा कहता है तो तू अपने को ठगता है और दूसरे को भी ठग रहा है। तू शर्म मत कर कि यदि हमें आत्मानुभूति नहीं होती है तो लोग क्या कहेंगे? तू तो जिनवाणी पर विश्वास कर। अपने मन में आचार्यों की वाणी को रखकर श्रद्धान नहीं किया और अपनी मान बढ़ाई के लिए आत्मानुभूति की बातें करता रहा तो तुझे जो करना चाहिए उस कर्तव्य से भी वंचित रहेगा। जब तुझे घर में ही आत्मानुभूति होने लगी फिर तुझे यह गृहवास घृणित क्यों लगेगा? फिर तुझे परिवार के राग-द्वेष छोड़ने की झटपटाहट कहाँ होगी? और तो और तुझे ऊपर कहे हुए श्लोकों और शास्त्रों पर भी विश्वास नहीं होगा? देख! सम्यग्दृष्टि गृहस्थ वही होता है जो संसार से भयभीत होकर विरक्त हो जाता है। विरक्त होकर घर में रहना किसी-किसी विरले श्रावक को ही संभव है। विरक्त होकर गृहवास त्यागने की भावना पहले भी गृहस्थ विद्वानों ने की है। पं. भूधर दास जी लिखते हैं कब गृहवास सौं उदास होय वन सेऊँ, बेऊँ निज रूप गति रोकू मन करी की। रहिहों अडोल एक आसन अचल अंग, सहिहौं परिषह शीत घाम मेघ घझरी की। सारंग समाज खाज कब धौं खुजै हैं आनि, ध्यान दल जोर जीतूं सेना मोह अरी की। एकल बिहारी यथाजात लिंगधारी कब होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हो वा घरी की। जैन शतक १७ और सुनो! यह मत समझना कि यह आवेग गृहस्थों में ही होता है, साधु में नहीं होता है। साधु भी दीक्षा लेने के बाद यदि वैराग्य में स्थिर नहीं रहता है तो वह भी ध्यान का पात्र नहीं होता है। जिसे मान बढ़ाई की चाह है और जो लोगों से घिरे रहने में अपने को धन्य समझता है, गृहस्थों की चाह में और उनसे मनोरंजन करने वाला साधु भी ध्यान का अपात्र है। इसलिए हे गृहस्थ! तुम विरक्त होकर ऐसे ही स्थान और संघ में रहना जहाँ चित्त की
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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