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________________ ६. तवो भावणा बारहविहो तवो खलु भणिदो बहिरंतरेहिं भेदेहि। कम्माण सादण-खमो सव्वेसिं जिणवरिंदेहिं॥१॥ तीर्थंकर भगवन्त सभी ने एक मार्ग दिखलाया है अष्ट कर्म के नाश करन का तप उपाय बतलाया है। अनशन अवमोदर भेदों से छह प्रकार तप बाह्य रहा अन्तरङ्ग तप विनय आदि भी छह प्रकार से सदा कहा॥१॥ अन्वयार्थ :[सव्वेसिंजिणवरिंदेहिं] सभी जिनेन्द्र भगवान ने | बहिरंतरेहिं भेदेहिं] बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से [बारहविहो तवो] बारह प्रकार का तप [खल] निश्चय से [भणिदो] कहा है जो [कम्माण सादाणखमो] कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है। भावार्थ : बारह प्रकार का तप है जो छह प्रकार के बाह्य तप और छह प्रकार के अन्तरङ्ग तप के भेद से सहित है। इस तप का कथन जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। यह तप ही कर्मों का नाश करने में समर्थ है। तप से ही सभी प्रकार की लक्ष्मी साधी जाती हैं । तप से ही देवता वश में होते हैं । तप से ही बड़े-बड़े विघ्न दूर होते हैं। श्रमण कर्म निर्जरा के लिए तप करता है। श्रावक भी कर्म निर्जरा के लिए तप करता है। कभी-कभी गृहस्थ दशा में अन्य कारणों से भी तप का आश्रय लिया जाता है। कार्य की सिद्धि के लिए भी तप ही अमोघ अस्त्र है। देखो! जब भरत-चक्रवर्ती दिग्विजय के लिए निकले थे तो वह अपनी अपार सेना लेकर चक्ररत्न को आगे करके चलते थे। जब भरत-चक्रवर्ती गंगा नदी के किनारे-किनारे चलकर गंगासागर पर पहुँचे तो वहाँ गंगा द्वार पर उन्होंने मन, वचन, काय की क्रिया को प्रशस्त कर तीन दिन का उपवास किया। उसके बाद उन्होंने अपने नाम से चिह्नित अमोघ नाम का बाण मागध देव के लिए छोड़ा। जब वह बाण बारह योजन जाकर मागध देव के भवन में गिरा तो उस देव को बहुत क्षोभ हुआ। शीघ्र ही चक्रवर्ती के आने का समाचार जानकर वह देव हाथों में रत्न लेकर भरत चक्री के पास आ गया। देवों को वशीभूत करने के लिए इस तरह तप करके अपने पुण्य को बढ़ाते हुए चक्रवर्ती आगे बढ़ते जाते थे। जब भरत राज विजयार्ध पर्वत की वेदिका के समीप पहुँचे तो वहाँ पर भी उन्होंने उपवास कर पर्वत के अधिष्ठाता विजयार्ध कुमार देव का स्मरण किया। उसके बाद म्लेच्छ राजाओं को जीतते हए जब भरत चक्रवर्ती हिमवान पर्वत की तराई में ठहरे तो वहाँ
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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