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________________ द्रव्यानुयोग इन चारों अनुयोगों में उसकी बराबर रुचि रहती है। प्रथमानयोग पढ़ने से विशेष रूप से वैराग्य भाव बढ़ता है। करणानुयोग के ग्रन्थ पढ़ने से विश्व तत्त्व का श्रद्धान वृद्धिंगत होता है। चरणानुयोग के ग्रन्थ पढ़ने से चारित्र के प्रति बहुमान होता है और चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम बढ़ता है जिससे चारित्र ग्रहण, तप करने की भावना होती है। द्रव्यानुयोग पढ़ने से बन्ध, मोक्ष आदि तत्त्वों का श्रद्धान दृढ़ होता है। चारों अनुयोगों से सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती है। जिस ग्रन्थ में शलाका पुरुषों, महापुरुषों के कई भवों का वर्णन होता है, उनके चरित्र का कथन किया जाता है, वह प्रथमानुयोग कहलाता है। प्रथम अर्थात् सबसे पहले जानने योग्य शास्त्र प्रथमानुयोग कहलाते हैं। श्री आदि पुराण, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, पद्म पुराण, जीवन्धर चरित्र, श्रेणिक चरित्र आदि ग्रन्थ प्रथमानुयोग के कहलाते हैं। द्वितीय अनुयोग करणानुयोग है। इसमें लोक और अलोक का विभाजन कहा जाता है। युग परिवर्तन, सृष्टि क्रम, भरत आदि क्षेत्रों में छह काल का परिवर्तन, चारों गतियों का वर्णन समझाया जाता है। करण अर्थात् गणित। इस अनुयोग में गणित की मुख्यता रहती है। द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि के क्षेत्र की माप, जीवों की संख्या, अकृत्रिम चैत्यालय, विमान, भवन आदि का प्रमाण और मनुष्य, देव आदि की ऊँचाई का मान इत्यादि विषय जिन ग्रन्थों के पढ़ने से ज्ञात हों वे सभी करणानयोग सम्बन्धी जानना। तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जंबूदीवपण्णत्ति आदि इस अनुयोग के प्रधान ग्रन्थ हैं। तृतीय अनुयोग चरणानुयोग है। इसमें गृहस्थ और श्रमणों के व्रत, चारित्र को पालन करने की विधि, उस चारित्र की रक्षा करने की भावना, व्रतों को आगे बढ़ाने की विधि इत्यादि विषयों का विशद वर्णन रहता है। इस अनुयोग के अध्ययन से सम्यक्चारित्र की आराधना में दृढ़ता आती है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों का समावेश इसी अनुयोग में होता है। समीचीन ढंग से सल्लेखना करने का ज्ञान भी इन्हीं ग्रन्थों के अध्ययन से होता है। चतुर्थ अनुयोर । द्रव्यानुयोग है। इस अनुयोग में जीव आदि सप्त तत्त्वों का, बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था, कर्मों के उदय आदि व्यवस्था और शुद्ध जीव आदि का कथन किया जाता है। श्री समयसार, द्रव्य संग्रह, पंचास्तिकाय, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार आदि ग्रन्थ इसी अनुयोग में आते हैं। न्याय, दर्शन, अध्यात्म और सिद्धान्त द्रव्यानुयोग का विषय है। इस तरह भगवान् सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट श्रुतामृत का निरन्तर पान करने से राग-द्वेष की हानि होकर वैराग्य की वृद्धि होती है। जिससे आत्मा में नया संवेग भाव उत्पन्न होता है। और किस साधु के संवेग बढ़ता है? आवेगो उव्वेगो उस्सेको णत्थि जस्स साहुस्स। णिव्वेग-परो आदा संवेगो तस्स होदि णवो॥७॥
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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