________________
छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो।'
अर्थात्- अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीन करणों को करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के प्रथम समय में अनन्त संसार नष्ट कर दिया और अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र संसार कर दिया।
इसी तरह कहीं 'कीरदे' इस क्रियापद का प्रयोग किया है। 'कीरदे' का अर्थ जीव के पुरुषार्थ से करना है। स्वयं होना नहीं है।
चक्रवर्ती के ९२३ पुत्र अनादि मिथ्यादृष्टि थे। अनन्त काल तक निगोद में रहे। एक मात्र स्थावर पर्याय में रहकर प्रथम बार मनुष्य की त्रस पर्याय प्राप्त की। प्रथम बार भगवान् के समवशरण को देखा। पहली बार अरहन्त परमात्मा के दर्शन किए। दर्शन करते ही सीधा संयम ग्रहण कर लिया।
सम्यग्दृष्टि आत्मन् ! जरा विचार करो- क्या उन्होंने भगवान् से अपनी काल लब्धि पूछी थी? क्या उन्होंने यह सोचा कि महाव्रत तो अनन्त बार धारण कर चुके हैं? क्या उन्होंने यह प्रतीक्षा की कि पहले सम्यग्दर्शन हो जाए बाद में काल लब्धि आने पर चारित्र अपने आप आ जाएगा? क्या उन्होंने अर्धपुद्गल परावर्तन काल जानकर संयम ग्रहण किया?
नहीं, नहीं, नहीं। हे आत्मन् ! ये सब तथ्य पुरुषार्थहीन लोगों के शास्त्रीय बहाने हैं। जिन्होंने पंच परावर्तन किए ही नहीं थे, जो अनन्तकाल से एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म मरण कर रहे थे, उनके लिए अर्धपुद्गल परावर्तन काल बचा रहा, जब उन्होंने सम्यग्दर्शन ग्रहण किया। ऐसी कोई पहचान या लक्षण अर्धपुदगल परावर्तन काल के अवशिष्ट रह जाने के नहीं हैं।
मोह की परिणति देखो! इतना सब कुछ भरत चक्रवर्ती के सामने घटित होने पर भी उन्हें वैराग्य नहीं हआ। इतना ही नहीं जब जयकुमार सेनापति संयम ग्रहण करने के लिए तत्पर हुए तो भरत ने उन्हें स्नेहवश रोका। लेकिन वह नहीं रुके और संयम ग्रहण के साथ ही उन्हें ऐसी लब्धि हुई कि वह भगवान् के समक्ष गणधर पद पर सुशोभित हुए।
मोह और राग की तीव्रता में ही ऐसा होता है कि सम्यग्दृष्टि जीव भी किसी को संयमी होने से रोके। भरत चक्रवर्ती को लग रहा था कि मेरा एक सेनापति रत्न छूट जाएगा। मेरे वैभव में कमी आ जाएगी, इसलिए ही शायद उन्होंने जयकुमार को रोका हो।
रक्खदि पुण सीलाणि परिधाणीव वदस्स सस्सस्स। वदभावणापरो जो सीलवदे अणइचारो सो॥५॥
पंच व्रतों की रक्षा कारण शीलव्रतों का अपनाना बाढ़ लगाकर बढ़ी फसल की रक्षा करना ज्यों माना।