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________________ सो हि कसायाविट्ठो कधं हवे विणअ जोग्गो खलु॥४॥ मोक्षमार्ग में लगे हुए की दर्प युक्त होकर के जो विनय चाहता, भक्ति चाहता मान कषाय बढ़ाकर जो। स्वयं बना अभिमानी है जो स्वयं कषायी होकर आप विनय योग्य वह कहो कहाँ सेहोसकता जब ना निष्पाप॥४॥ अन्वयार्थ : [जो ] जो व्यक्ति [ पुण] पुनः [ दप्पेण ] दर्प से [ जुदो ] युक्त हुआ [ हु] निश्चित ही [ मोक्खमग्गिस्स ] मोक्षमार्गी की [विणय ] विनय [ कंखदि ] चाहता है [ सो ] वह [ हि ] निश्चित ही [ कसायाविट्ठो] कषाय से सहित है। विणअ जोग्गो] वह विनय योग्य [खल ] वास्तव में [कधं] कैसे | हवे ] होवे। भावार्थ : जैसे बिच्छु अपने डंक के अभिमान से भरा रहता है, वैसे ही मानी व्यक्ति अपनी उत्कृष्टता के दर्प से सहित होता है। बिच्छु का दर्प तभी तक रहता है जब तक उसके पास डंक रहता है और तभी तक वह उसे अपने सिर पर उठाकर दर्प लिए फिरता है। कोई दूसरा व्यक्ति भी जो कि मोक्षमार्ग पर चल रहा है, वह भी यद्यपि विनयवान है, लेकिन उसकी विनय की इच्छा कोई करे कि यह हमेशा मेरी विनय करे। या यह हमारी विनय करता है इस प्रकार के अभिमान से युक्त रहता है। या यह हमारी विनय करे, इस प्रकार की कषाय से युक्त रहता है। ऐसी स्थिति में जो स्वयं कषायवान है, वह विनय के योग्य कैसे हो सकता है? अर्थात् कषायवान् जीव की विनय करने से उस सम्यग्दृष्टि को क्या लाभ होगा? वस्तुतः कषायवान जीव विनय के योग्य ही नहीं है, यह तात्पर्य है। विनय रहित जीव को सुख नहीं मिलता, यह कहते हैं विणएण रहिदजीवो अज्जव धम्मं कदा ण पावेदि। तेण विणेह ण सोक्खं होदि कधं तं च परलोए ॥५॥ जो जन विनय नहीं करता है कैसे ऋजुता धर्म धरे ऋजुता बिन मन भारी रहता कैसे मन को सौख्य अरे! इस जीवन में सुखी नहीं जो कैसे आगे सुख पाए बीज नहीं बोया तो मानव कैसे तरुवर फल खाए? ॥५॥ अन्वयार्थ : [विणएण] विनय से [ रहिदजीवो ] रहित जीव [ अजव धम्म] आर्जव धर्म को [कदा] कभी [ण पावेदि] प्राप्त नहीं करता है [ तेण विणेह ] उसके बिना इस लोक में [ सोक्खं ] सुख [ण ] नहीं होता है [कधं ] कैसे [तं च ] वह सुख [ परलोए] पर लोक में [ होदि] हो। टीकार्थ : जिस तरह मृदुता आत्मा का धर्म है उसी तरह ऋजुता आत्मा का धर्म है। ऋजुता का सम्बन्ध मृदुता से है। आज मनुष्य के पास दो ही दुःख हैं। कुछ कम होने से अभिमान की पूर्ति नहीं होने का दुःख है और सब कुछ
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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