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________________ इस अजीव तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान कर। भावना कर इस शरीर में मेरी आत्मा रह रही है किन्तु यह शरीर मेरा आत्मा नहीं है। शरीर मिट जाने पर भी मेरा आत्मा तो सदैव ज्ञान-दर्शन स्वभावमय बना रहेगा। शरीर सो आत्मा नहीं है। इसी तरह अन्य स्त्री, पुत्र आदि के शरीर भी उनका आत्मा नहीं है। प्रियात्मन्! अजीव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान छोड़कर इस तरह के ज्ञानाभ्यास से सम्यग्ज्ञानी बनो। हे आत्मन् ! तूने आस्रव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान किया है। जिन कारणों से कर्म का आत्मा में आस्रव (आना) होता है, उन कारणों को तूने अच्छा माना, हितकारी माना। जैसे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, मात्सर्य आदि भावों से आत्मा में संसार बढ़ाने वाले कर्म का निरन्तर आस्रव होता है। तूने आस्रव के इन भावों को अच्छा माना। भले ही बाद में इनका फल तुझे दुःख देने वाला मिला हो। देख! जब तूने किसी से राग किया तो तुझे अच्छा लगा, बाद में जब उसका वियोग हुआ तो दुःख ही मिला। इसी तरह जब तुमने क्रोध किया तो उस समय कोध को अच्छा माना तभी तो किया। क्रोध करते समय अपने को दूसरे का सुधारक माना, अपने को दूसरे से बढ़कर ज्ञानी माना, अपने को दूसरे से बढ़कर शक्तिशाली माना, तभी तो क्रोध किया। बाद में उसका फल विचार किया तो लगा कि इससे बहुत हानि हुई है। यही आस्रव का विपरीत श्रद्धान है। इसलिए हे आत्मन् ! इन विकारी भावों को सदैव आत्मा के अहितकर जानो और आत्म स्वभाव का चिन्तन करो कि आत्मा तो शान्त, सुख-आनन्दक्षमा स्वभाव वाला निर्विकार है। क्रोध आदि विकार हैं, यही आस्रव तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान है। हे निर्बन्ध आत्मन् ! तू सब प्रकार के बन्धनों से रहित है। तूने घर को बन्धन नहीं माना, स्त्री-पुत्र-परिवार को बन्धन नहीं माना । जो तुझे मुक्त कराने के कारणभूत थे ऐसे जिनालय, शास्त्र और गुरु को तूने बन्धन माना, तभी तो उनके पास जाकर भी शान्तभाव धारण नहीं करता है । तुझे मन्दिर से ज्यादा घर अच्छा लगता है। तुझे शास्त्र से ज्यादा उपन्यास, टी.वी. के नाटक और काल्पनिक कथाएं अच्छी लगती हैं। तुझे गुरु से ज्यादा क्रिकेट और सिनेमा के हीरो अच्छे लगते हैं। यही बन्ध तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। अब तू अपनी रुचि को परिवर्तित करके बन्ध तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान कर। हे संवर इच्छुक आत्मन् ! जो संवर के कारणभूत व्रत, समिति, वैराग्य, परीषह सहना और ज्ञान भावना है वह तुझे कष्टकारी लगती है, यही तेरा विपरीत श्रद्धान है। तुझे असंयम से रहने में सुख लगता है और संयम-नियम धारण करने में अनेक बहाने बनाता है। तू प्रमादी होकर स्वयं आत्मा का अहित कर रहा है। जब तेरी बुद्धि सुलट जाए और तेरा श्रद्धान बन जाए कि संवर तो संयम से ही होगा। कर्मों का रुकना तो वैराग्य-ज्ञान से ही होगा तभी संवर तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान होगा। ___ हे आत्महितैषिन् ! आत्मा में बैठे कर्मों की निर्जरा सम्यग्ज्ञानपूर्वक तप से ही होती है। इन्द्रियों के विषयों से दूर होकर, अनेक प्रकार के सम्यक् तप को अपनी शक्ति प्रमाण पालन करने से ही कर्म निर्जरा होगी। काललब्धि की प्रतीक्षा करने से नहीं होती है। ऐसी प्रतीक्षा में बैठना निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। आचार्य कहते हैं कि कर्मों की निर्जरा करने के लिए काल का कोई नियम नहीं है। कालानियमाच्च निर्जरायाः - रा. वा. १/४-९
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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