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________________ अन्वयार्थ : [को वि] कोई भी[परोण] पर नहीं है [णिओणो] अपना भी नहीं है [ सचित्ताचित्तदव्वमज्झत्थो] जो सचित्त-अचित्त द्रव्यों में मध्यस्थ है [ सव्वाण ] सभी जीवों के [ सोक्खकंखी ] सुख की इच्छा रखता है [तस्सेव] उसके ही [पवयणवच्छलत्त] प्रवचन वत्सलत्व होता है। भावार्थ : हे आत्मन् ! वात्सल्य का अर्थ दूसरे से स्नेहपूर्ण व्यवहार है। परन्तु यह परिभाषा पूर्ण और स्वाश्रित नहीं है। यदि ऐसा होगा तो जो मुनिराज एकाकी विहार करते हुए पर सम्पर्क से दूर नितान्त एकान्त में रहते हैं, उनके पास प्रवचन वात्सल्य नहीं है, यह सिद्ध होगा। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसी उग्र तपस्या करने वाले श्रमणों को भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। भगवान् आदिनाथ, पार्श्वनाथ आदि जिन महापुरुषों ने पूर्व भव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया है, वह ऐसे ही श्रमण रहे हैं। दूसरी बात यदि इस परिभाषा को ही पूर्ण मान लिया जाय तो पराश्रिता बढ़ती जाएगी और इस कलिकाल के श्रमण या श्रावक स्नेहपूर्ण व्यवहार में ही आनन्द मानेंगे। लौकिकता में आकण्ठ डूबा साधु भी कहेगा कि मेरे प्रवचन वात्सल्य की भावना से ये लौकिक लोग मेरे पास मुझे घेरे हुए रहते हैं। यह तो अभिप्राय को न समझने से छल होगा। लौकिक व्यवहार में असंयमी लोगों से सम्पर्क प्रवचन वात्सल्य नहीं है। यदि ऐसा हो जावे तो फिर जितना ज्याद स्नेह होगा उतना ही प्रवचन वात्सल्य की भावना अधिक होगी, किन्तु ऐसा नहीं है। हे श्रमणराज! अपने सधर्मी जन, मुनि आदि मात्र से समाचार के समय स्नेह भाव से युक्त होना और उनकी आपत्ति को दूर करना प्रवचन वात्सल्य नहीं है। विकथा, हँसी मजाक से स्नेहिल व्यवहार करना प्रवचन वात्सल्य नहीं है। इसी प्रकार असंयमी जनों के प्रति राग होना भी प्रवचन वात्सल्य नहीं है। आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में यह क्रिया भी वर्जनीय है। इसलिए असंयमी जनों को लुभाना और उनसे राग रखना भी प्रवचन वात्सल्य नहीं है। यह तो अत्यन्त विशुद्ध भावना है। विशुद्ध भावना से आत्म विशुद्धि बढ़ती है। रागादि से तो मन में संकल्पविकल्प बढ़ते हैं। चूँकि पर को निमित्त बनाकर आत्मा में प्रसाद गुण (सहज प्रसन्नता) होना तो तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हो सकता है किन्तु रागान्वित होकर व्यवहार करना इस प्रकृति के बन्ध का कारण नहीं होता है। जो सभी जीवों के सुख की कांक्षा करता है, भावना करता है और अपाय विचय धर्मध्यान करता है, वह प्रवचन वात्सल्य करता है। ऐसा करने वाल श्रमण या श्रावक सचित्त, अचित्त सभी द्रव्यों में मध्यस्थ रहता है, उसके लिए कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं। 'सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय' की उदार वृत्ति रखने वाला आत्मा ही इस भावना का समीचीन पात्र है। अब विनय और वात्सल्य में सम्बन्ध दिखाते हैं विणओ य वच्छलत्तं परोप्परं वत्थुदो दु एयटुं।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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