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________________ दोनों से उपयोग हटाकर ज्ञान नय में रमता है। यही स्थिति शुद्धोपयोग की है। इसे ही नैष्कर्म्य की दशा कहा है। श्रमण के लिए कहीं शुभोपयोग की क्रिया से ही सन्तुष्टि न हो जाए इसलिए उसे शुद्धोपयोग में रमाने के लिए समयसार आदि ग्रन्थों में प्रेरित किया है। जिन्होंने पाप छोड़ दिया है उन्हें ही पुण्य क्रिया छोड़ने के लिए कहा जाता है ताकि आत्म स्वभाव की अनुभूति हो। जिन्होंने पाप को नहीं छोड़ा है ऐसे श्रावकों के लिए पुण्य छोड़ना कदापि सम्भव नहीं है। जो श्रावक पाप छोड़ने से पहले ही पुण्य छोड़ने का श्रद्धान करता है, वह अक्रम से चलकर लक्ष्य पर पहुँचना चाहता है। गुरु महाराज ने एक बार कहा कि बताओ! पाप और पुण्य एक हैं या अलग-अलग। उत्तर मिला- एक हैं। फिर गुरु जी ने पूछा- पदार्थ कितने हैं? उत्तर मिला- नौ । गुरु जी ने कहा- आप स्ववचन बाधित हैं। जब आपकी दृष्टि में पुण्य-पाप वास्तव में एक हैं तो पदार्थ नौ क्यों कह रहे हो? पदार्थ आठ होते हैं, ऐसा कहना था। कितना सटीक तर्क गुरु महाराज ने दिया। वास्तव में यदि पुण्य-पाप एक हैं तो दो पदार्थ पृथक्-पृथक् क्यों कह रहे हैं? हे आत्मन् ! समझ ले यह रहस्य। नौ पदार्थ भी व्यवहार नय से कहे हैं। व्यवहार नय से जब भी पदार्थ की संख्या पूछी जाएगी तो नौ उत्तर ही मिलेगा। यदि कहो कि निश्चय से पदार्थ तो आठ हैं, यह कहना भी मूर्खता होगी। निश्चय से पदार्थ तो एक मात्र आत्मा ही है। यदि पदार्थ नौ नहीं होते तो आचार्य क्यों कहते कि छह द्रव्य, और नौ पदार्थ पर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन होता है। जिसके ज्ञान में पुण्य-पाप व्यवहार नय से भी एक हैं तो उसे नौ पदार्थ पर श्रद्धान ही कहाँ? पाप-पुण्य को सर्वथा समान मान लेने वाले को नौ पदार्थ ही नहीं मान्यता में आए तो उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कैसे होवे? पाप का पाप रूप श्रद्धान कर, पुण्य का पुण्य रूप श्रद्धान कर तभी पदार्थ का यथार्थ श्रद्धान कहलाएगा। यहाँ पाप कर्म या पुण्य कर्म के आस्रव की बात नहीं है किन्तु पाप क्रिया और पुण्य क्रिया की बात कही है। पुण्य कर्म के आस्रव को रोकने या निर्जरा करने को नहीं कहा गया है किन्तु पुण्य क्रिया को रोककर आत्मानुभूति करने को कहा है। इसी भाव को छहढाला में इस प्रकार कहा है 'जिनपुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना' आचार्य अमृतचन्द्र जी कहते हैं 'संन्यसतव्यमिदं समस्तमपि तत्कमैव मोक्षार्थिना' अर्थात् मोक्षार्थी को समस्त शुभाशुभ रूप कर्म से सन्न्यास ले लेना चाहिए। संन्यास कर्म से लेना है या क्रिया से लेना है? क्रिया से संन्यास लेना ही सम्भव है। कर्म से संन्यास लेना अपने वश की बात नहीं है। हाँ! इतना अवश्य है कि बुद्धिपूर्वक आने वाले शुभाशुभ कर्म आस्रव को रोका जाता है, अबुद्धिपूर्वक तो शुभाशुभ कर्म का बन्ध होता ही रहता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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