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________________ अन्तर्भावना - प्रस्तावना भाव जीव-अजीव प्रत्येक पदार्थ में पाये जाते हैं किन्तु भावना मात्र जीव में ही पाई जाती है। 'भाव प्रधान' जैनदर्शन में प्रत्येक क्रिया भाव के साथ जुड़ी है। 'भावना भवनाशिनी' कही है। इससे स्पष्ट है कि भाव और भावना में अन्तर है। जीव के साथ हमेशा रहने वाले औदयिक आदि पाँच भाव हैं। ये सामान्य भाव हैं। भावना जीव की पुरुषार्थशीलता का द्योतक है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ भावना पर आधारित हैं। किसी भी पुरुषार्थ को करने से पहले जो चिन्तन, मनन और तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है वही भावना है। अरिहन्त तीर्थंकरों के द्वारा आगे बढ़ने वाला 'जिनशासन' उस जीव की पूर्व जन्म में भाई हुई तीव्र भावनाओं का फल है। विशिष्ट पुण्य और पाप प्रकृति का बन्ध जीव की विशिष्ट भावनाओं से होता है सामान्य भावों से नहीं । भावना शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की होती है। अत्यन्त शुभ भावना का फल तीर्थंकर प्रकृति का बंध कहा है। सिद्धान्त की दृष्टि से इस तीर्थंकर प्रकृति को बांधने वाला जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक जीव तक होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यात बहुभाग के व्यतीत हो जाने पर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है। इस तीर्थंकर कर्म प्रकृति के बन्ध के लिए बाह्य सहयोगी कारण केवली या श्रुतकेवली का पादमूल है। इसके अतिरिक्त अन्तरङ्ग कारण सोलहकारण भावना हैं । षट्खण्डागम सूत्र में कहा है कि 'तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयर णामगोदकम्मं बंधंति ।' ध. पु. ८ सूत्र ४० अर्थात् वहाँ इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का बंध करते हैं। मुख्य पुरुषार्थगम्य भावात्मक अन्तरङ्ग कारण तो सोलह भावना हैं । केवलि द्विक का सान्निध्य तो सामान्य कारण है इसलिए उसका कथन सूत्र ग्रन्थ में नहीं कहा है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी इन सोलह कारण भावनाओं को तीर्थंकर बंध का कारण कहा है। केवली द्विक का सान्निध्य सामान्य कारण है, इसलिए अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध का अभाव होने से उसका यहाँ कथन नहीं है। सोलहकारण भावनाएँ जो तत्त्वार्थ सूत्र के छठवें अध्याय में वर्णित हैं उन्हीं का जन सामान्य में प्रचलन प्रवाहमान है। षट्खण्डागम सूत्रों में भी उन सोलह कारण भावनाओं का वर्णन है। आचार्य उमास्वामी जी से भी प्राचीन आचार्य भूतबली द्वारा रचित उन भावनाओं के क्रम और नाम में कुछ अन्तर है । यह अन्तर जानने के लिए यहाँ प्राकृत और संस्कृत दोनों मूल ग्रन्थों के नाम, क्रम में क्या अन्तर है? यह एक साथ तुलनात्मक रीति से देखते हैं । -
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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