SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. पवयण वच्छलत्त भावणा जो कुणदि वच्छलत्तं दसणवरणाणचरणलग्गेसु। पूयालाहविमुक्को पवयणवच्छलत्त तस्सेव॥ १॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान-चरण में जो भविजन रत रहते हैं वे भविजन प्रवचन कहलाते उनमें वत्सल धरते हैं। निश्छल वत्सल भाव कहाता ख्याति लाभ ना पूजा चाह प्रवचन वत्सलता का धारक श्रमण चले तीर्थंकरराह॥१॥ अन्वयार्थ : [जो ] जो [ पूयालाहविमुक्को ] पूजा-लाभ से रहित होकर [दसण-वरणाण-चरण लग्गेसु] दर्शन, श्रेष्ठ ज्ञान चारित्र में लगे जीवों पर [ वच्छलत्तं] वात्सल्य [कुणदि] करता है [ तस्सेव] उसके ही [पवयणवच्छलत्त] प्रवचन वत्सलत्व भावना है। भावार्थ : हे जीवात्मन् ! प्रवचन वात्सल्य नाम की यह सोलहकारण भावनाओं में अन्तिम भावना है। प्रवचन शब्द शास्त्र के लिए आता है और प्रवचन शब्द सहधर्मी भव्य आत्माओं को भी कहा जाता है। यहाँ मोक्षमार्ग पर चलने वाले सभी प्राणी प्रवचन नाम से कहे हैं। इनमें पूजा-ख्याति-लाभ की भावना के बिना निश्छल वात्सल्य रखना प्रवचन वत्सलत्व है। श्रीधवल ग्रन्थ में कहा है कि- उन प्रवचनों अर्थात् देशव्रती, महाव्रती और असंयत सम्यग्दष्टियों में जो अनुराग, आकांक्षा अथवा 'ममेदं' अर्थात् यह मेरे हैं, यह बुद्धि होती है उसका नाम प्रवचन वत्सलता है। उससे तीर्थंकर कर्म बंधता है। इसका कारण यह है कि पाँच महाव्रत आदि रूप आगमार्थ विषयक उत्कृष्ट अनुराग का दर्शनविशुद्धता आदि के साथ अविनाभाव है। अर्थात् यह प्रवचन वत्सलता विशुद्धता आदि के साथ अविनाभाव है। अर्थात् यह प्रवचन वत्सलता दर्शनविशुद्धता आदि शेष गुणों के बिना नहीं बन सकती है। आचार्य अकलंक कहते हैं कि जैसे गाय अपने बछडे से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचन वत्सलत्व है। जो धार्मिकों में स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है। ___ जो जीव संसार सुख से पराङ्मुख है, वह भव्य जीव ही मोक्षमार्गी है। जो संसार सुख की इच्छा रखता है, वह श्रावक या श्रमण कोई भी हो मोक्षमार्गी नहीं है। जिसने आत्मा को जाना है और उसे ही उपलब्ध करने का उद्यम रखता है वह धर्मात्मा जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में लगे हुए सभी आत्माओं से स्नेहिल भाव रखता है। सम्यग्दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, जो इन्हें अपनाता है वह स्वयं भी सम्यक्त्व धारक धर्मात्मा है। ऐसे धर्मात्मा के प्रति अनुराग वस्तुतः उसके सम्यक्त्व आदि गुणों से ही अनुराग है। ये सभी गुण आत्मा में हैं, इसलिए आत्मा से ही अनुराग हुआ। जो इन आत्मिक गुणों में लीन हैं वह पंच परमेष्ठी हैं। पंच परमेष्ठी की वात्सल्य भाव से पूजा, गुणानुराग की भावना भी प्रवचन वत्सलत्व है। कहा भी है
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy