SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शासन' का अनेकान्त शब्द सदैव सभी पदार्थ में सर्वत्र, सर्वकाल अवस्थित है, व्याप्त है, वैसे ही 'नमन' क्रिया सदैव, सर्वत्र व्याप्त नहीं रहती है अतः यह क्रिया शासन का विशेषण बनकर कभी भी उस शासन को गौरान्वित और महत्त्वपूर्ण नहीं बना सकती है। यह नमन क्रिया श्रमण में भी सदैव, सर्वत्र नहीं पायी जाती है। इस क्रिया से तीर्थंकरों, अर्हन्तों, सिद्धों का कोई वास्ता नहीं है। श्रावक आदि सभी की आपसी व्यवहार की क्रियाएँ हैं। आज यदि श्रमण की नमस्कार क्रिया पर शासन बनने का आग्रह है तो कल आर्यिका, क्षुल्लक और श्रावक भी अपनी-अपनी नमस्कार क्रिया के नाम अनुसार एक और नया शासन बनाने का बीड़ा उठा सकते हैं। इस जिनशासन को यदि इन्हीं क्रियाओं से छिन्न-भिन्न करने में आनन्द आ रहा है तो यह भी हण्डावसर्पिणी काल का एक और दोष समझना। हे आत्मन् ! जिनशासन की आज्ञा में बंधे रहना ही आज्ञा सम्यक्त्व है। जिनशासन की महिमा का प्रकाशन करना ही प्रभावना है। आचार्य समन्तभद्र देव ने प्रभावना अंग में 'जिनशासन' की महिमा को दिखाना प्रभावना कहा है। किसी अन्य शासन की महिमा दिखाना प्रभावना नहीं कहा है। जिनशासन की इस आज्ञा में बंधे रहना ही उत्कृष्ट संयम है। अनादि से चले आए इस जिनशासन की जयकार करना ही सम्यग्ज्ञान है। आचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकेर, समन्तभद्र आदि प्रामाणिक आचार्यों की परम्परा ने जिस जिनशासन की छाया में स्वयं शीतलता प्राप्तकर अन्य अनेक भव्यों को भी उसी छाया में शीतलता प्राप्त करा कर तथा उसी छाया में बिठाकर आनन्दित किया है, वह 'जिनशासन' पंचम काल के अन्त तक सदैव जयवन्त रहे, जयवन्त रहे, जयवन्त रहे। मार्ग प्रभावना में रत व्यक्ति की और विशेषताएँ भी हैं अणुवीचिभासकुसलो कुव्वंतो अणलसेण सामइयं। समधम्मे खलु हिरदो मग्गपहावणापरो सो हि॥६॥ विकथा वचन नहीं जो करता आगम के अनुरूप वचन बिना गिने सामायिक करता मन रहता निरपेक्ष चमन। साम्य भाव है धर्म हमारा वह ही आतम का सुखकन्द निरत रहा जो इसी भाव में उसी श्रमण को है आनन्द॥६॥ अन्वयार्थ : [अणुवीचिभासकुसलो ] अनुवीचि भाषण में कुशल [अणलसेण] बिना आलस्य के [ सामइयं कुव्वंतो] सामायिक करने वाला [खल ] निश्चय से [सम धम्मे] समता धर्म में [णिरदो] निरत [हि] ही [सो] वह आत्मा [ मग्गपहावणापरो] मार्ग प्रभावना में तत्पर है। भावार्थ : जो श्रमण या श्रावक यद्वा, तद्वा नहीं बोलता है। अशिष्ट, ग्राम्य, असभ्य, भंड वचनों का प्रयोग नहीं करता है, वह ही मनोगुप्ति या वचनगुप्ति का अभ्यासी है। वचन गुप्ति का धारक आत्मा सदैव आगम-अनुरूप वचन बोलने में कुशल होता है। कलह, हिंसा, व्यंग्यात्मक वचन शैली पाप बन्ध की है। मार्ग प्रभावक की यह बहुत ही अनिवार्य कशलता है कि वह आगमानुसार बोलने वाला हो। प्रभावना और अप्रभावना का मुख्य कारण व्यक्ति की वाकपटता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy