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________________ भगवान महावीर ने अपने शासन को 'वीरशासन' नाम नहीं दिया। उन्होंने तो 'जिनशासन' की ही महिमा गाई है। उन्होंने दिव्यध्वनि के द्वारा इस कलिकाल के जीवों पर महान् उपकार किया है, इसलिए भक्त लोग उनके प्रथम दिव्यध्वनि के दिन को वीरशासन जयन्ती के रूप में मनाते हैं। परन्तु वह जयन्ती मात्र पंचम काल के २१००० हजार वर्षों के लिए ही है। ऐसा होते हुए भी शासन तो 'जिनशासन' ही है। जिनशासन, जैनशासन, अर्हत्शासन, आईतशासन आदि नाम अनन्त चतुष्टय गुणवाची आत्माओं के हैं। यह व्यापक संज्ञा है। अथवा शास्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते जीवादिपदार्थाः यै स्तत् शासनम् । इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे सर्वज्ञ भगवान् प्रणीत तत्त्वों का या पदार्थों का कथन किया जाता है, वह शासन है। इसके अनुसार अनेकान्तशासन, स्याद्वादशासन, युक्त्यनुशासन आदि नाम जिनशासन के पर्यायवाची बन जाते हैं। सर्वत्र आचार्यों का उद्घोष इस तरह किया गया है। या तो गुणवाचक 'जिन' शब्द को विशेषण बनाया है या पदार्थ वाचक, वस्तु धर्मवाचक 'अनेकान्त' जैसे शब्दों को विशेषण बनाया है। पाठकबन्धो ! देखो कुछ सन्दर्भ प्रधानं सर्व धर्माणां जैनं जयतु शासनम्- प्राचीन मंगलाचरण जेण मित्ती पभावेज तंणाणं जिणसासणे- मूला. ८६ जेण अत्ता विसुज्झेज तंणाणं जिणसासणे- मूला. ८५ जिनशासन- माहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना- रत्न. श्रा. १८ आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः- रत्न. श्रा.७८ नृसुरश्रीप्रसूनस्य जिनशासनशाखिनः- हरि. पु. ३/१७६ चउहि पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो। - दर्शन पा. ३० णहि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।- सूत्र पा. २३ रायादिदोसरहिओ जिणसासण मोक्खमग्गुत्ति।- चारित्र पा. ३९ पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो।- भाव पा. ७८ परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो - भाव पा. ११६ सो तेण दु अण्णाणी जिणसासण दूसगो भणिदो - मोक्ष पा. ५६ जिनशासनवात्सल्यभक्तिभारवशीकृतः- ह. पु. ११/१०५ जिनशासन सत्प्रदीपभासुरमूर्तीन् - आचार्य भक्ति २ जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम्- ईर्या. भ. ३ जाणि काणि वि सल्लाणि गरहिदाणि जिणसासणे- बृहत् प्रतिक्रमण अपदेससुत्तमझं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥-समयसार नमोऽनेकान्ताय शान्तये- ईर्यापथ भक्ति इत्यादि सन्दर्भो से आचार्य का 'जिनशासन' के प्रति गहरा आस्था भाव जहाँ प्रकट होता है वहीं उसकी व्यापकता का भाव भी प्रकट होता है। कोई भी गुण, क्रिया, धर्म जब वस्तु के एकदेश(अर्थात् किसी हिस्से में, थोड़े क्षेत्र में) में रहता है तो वह 'व्याप्य' कहलाता है और जो सर्वदेश में रहे वह 'व्यापक' कहलाता है। पूर्वाचार्यों ने शासन से पहले जो विशेषण किसी एक क्रिया, एक गुण, एक धर्म का वाचक व्याप्यभूत नहीं है। ज्ञानी साधकों की इस
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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