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________________ बचाएँगे? इतना ही नहीं सर्वज्ञ अवस्था में तो जो सातावेदनीय का ईर्यापथ आस्रव होता है, वह तो सर्वाधिक मिष्ट, सरस पुद्गल परमाणुओं का होता है। यह आस्रव इतना अधिक सशक्त होता है कि असाता वेदनीय का उदय भी यदि आत्मा में चल रहा हो तो उस असाता वेदनीय का प्रभाव आत्मा पर किञ्चित् भी नहीं होता है। स्वयं अरिहन्त भगवान् ऐसे ही पुण्य का सेवन निरन्तर कर रहे हैं। स्वयं यह अरहन्त दशा उन्हें पुण्य के फल से प्राप्त हुई है। आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं कि 'पुण्णफला अरिहन्ता' अर्थात् अरिहन्त अवस्था पुण्य का फल है। उसी अरिहन्त अवस्था को प्राप्त करने के लिए लालायित मुमुक्ष पुण्य से इतना बचते हैं जितना कि कोई कुलीन पुरुष नीच पुरुष के घर भोजन करने से बचता हो। ऐसे पुण्य से बचने वालों को लगता है कि पूजा नहीं करना, आरती नहीं करना, भगवान् की भक्ति नहीं करना, जिनालय, जिनबिम्ब तो मात्र प्रतीक के रूप में मानना, इनकी आराधना से पुण्य बन्ध होता है और पुण्य बंध संसार का कारण है। जैसा पुण्य तैसा पाप। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अरे! पाप के बंध से तो अज्ञानी भी डर जाता है किन्तु पुण्य बन्ध से डरने वाला तो ज्ञानी ही होता है। ऐसे ही न जाने कितने मनगढन्त प्रलापों से जिनवाणी का अपलाप करने में उन्हें किञ्चित् भी भय नहीं होता। हे आत्मेच्छो! आचार्यों के अभिप्राय को अनेकान्त दृष्टि से समझने के कारण ही ऐसे एकान्त अभिप्राय जन्म लेते हैं। यदि तुम आत्म कल्याण की इच्छा रखते हो तो कभी भी भगवान् की पूजा-भक्ति से नहीं डरना। समीचीन आयतनों की अति आदर भाव से अर्चना करना। पूजा, अर्चना से जो पुण्यबंध होगा वह कभी भी संसार का कारण नहीं होगा। तुम्हारे लिए इस पंचम काल में भगवान् की पूजा-भक्ति से बढ़कर और कोई दूसरा सरल साधन आत्मा को पवित्र करने का नहीं है। महान् सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक आचार्य सर्वाथसिद्धि में कहते हैं- 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्।' पुण्य की परिभाषा तो देखो- जो आत्मा को पवित्र करे या जिससे आत्मा पवित्र होवे वह पुण्य है। और पाप की परिभाषा है कि जो आत्मा को पुण्य से बचाए वह पाप है। श्रावकबन्धो! पुण्य से बचोगे तो पाप का ही बन्ध होगा। अरे ! तुम क्या पुण्य के बन्ध से बच सकते हो जब तद्भव मोक्षगामी मुनिराज पुण्य के बंध से नहीं बच पा रहे हैं। ध्यान अवस्था में, शुद्धोपयोग में, शुक्लध्यान की अवस्था में उन्हें पुण्य का अति तीव्र अनुभाग वाला बन्ध हो रहा है। यह कथन सिद्धान्त शास्त्र श्री धवला आदि में स्पष्ट रूप से लिखा है। अरे मुमुक्षु! जब शुद्धोपयोग में मुनिराज को भी पुण्य बन्ध हो रहा हे तो तुम शुभोपयोग की भूमिका में रहने वालों को पुण्य बन्ध से छुटकारा कैसे मिल सकता है? यदि शुभोपयोग की क्रिया से बचोगे तो एक ही शरण तुम्हारे लिए बचेगी, और वह है अशभोपयोग की. क्योंकि शद्धोपयोग अविरत अवस्था में नहीं होता है। स्वाध्याय करते हुए अहो आत्मा, अहो भगवान् आत्मा! यह भाव कर लो या पूजा, जाप, दान कर लो होना तो शुभोपयोग ही है। स्वाध्याय भी शुभोपयोग की क्रिया है और पूजन भी शुभोपयोग की क्रिया है। एक बार आचार्य विद्यासागर जी महाराज से एक ऐसे ही निश्चय एकान्तवादी ने आकर पूछा- महाराज! स्वाध्याय करने से ज्यादा बन्ध होता है या पूजन करने से? आचार्य महाराज ने कहा- स्वाध्याय करने से। जितना बन्ध पूजन करने से होता है उससे तीन गुना बन्ध स्वाध्याय करने से होगा, क्योंकि पूजन तो दिन में एक बार की जाती है किन्तु स्वाध्याय तो तीन बार किया जा सकता है। पूजन में भी पुण्य का बंध है और स्वाध्याय में भी।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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