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________________ अन्वयार्थ : [जो] जो [अण्णं कजं] अन्य कार्यों को [दु] तो [वोसरित्ता] छोड़कर [आवस्सं] आवश्यक को [ सिग्धं ] शीघ्र [ वा ] अथवा [ दिग्धकाले ] दीर्घकाल में [ ण हि ] नहीं [ परिपूरदि] पूर्ण करता है [ सो] वह [ साहू ] साधु [ अपमत्तो ] अप्रमत्त है। भावार्थ : आत्मन् ! आवश्यकों को पूर्ण करने के लिए शीघ्रता करना जिस प्रकार दोष है, उसी प्रकार अधिक विलम्ब करना भी दोषकारक है। जो आवश्यकों के इन हीनाधिक दोषों से बचता है, वह साधु ही अप्रमत्त है। पत्तेयं आवस्सं जावज्जीवं जहु त्तकालम्मि। करणीयं जो कुव्वदि आवस्सयपुण्णदा तस्स॥६॥ जिस विधि से जिस समय पे करना कहा गया जिनवाणी में उस विधि से उस समय पे करता नहीं रमे मनमानी में। जीवन भर जिन आज्ञा का जो भार धार भी हलका है आवश्यक परिपूर्ण यती को नहीं भरोसा पल का है॥६॥ अन्वयार्थः [जावज्जीवं] जीवन पर्यन्त तक [जहुतकालम्मि] यथोक्त काल में [करणीयं] करने योग्य [ पत्तेयं ] प्रत्येक[ आवस्सं ] आवश्यक को [ जो ] जो [ कुव्वदि ] करता है [ तस्स ] उसके [ आवस्सयपुण्णदा] आवश्यकों की पूर्णता होती है। भावार्थ : जिस काल में जो आवश्यक कहे हैं, उन्हें उसी काल में करना। जिन आवश्यकों के लिए जो काल वर्जित है उन्हें छोड़ देना। आवश्यक करते समय जो कायोत्सर्ग किए जाते हैं उनके काल प्रमाण को भी ध्यान रखना। इस तरह सावधानीपूर्वक जो जीवन पर्यन्त इन आवश्यकों को करता है वह आवश्यकों की पूर्णता प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति जब-जब दुःखी होता है, तब-तब उसके पीछे एक ही कारण होता है कि उसे किसी से जो अपेक्षा थी उसकी पूर्ति नहीं हुई। पर वस्तु में इच्छा होना मानव की सहज प्रकृति है। अपने दैनिक जीवन में प्रत्येक गृहस्थ पहले अनेक सपने संजोता है, अनेक योजनायें बनाता है, अनेक प्रकार की महत्त्वाकांक्षायें रखता है। उन सबकी पूर्ति कदापि किसी को भी नहीं हो सकती है। जितनी मन की हो जाती है उससे उसकी इच्छा शक्ति बढ़ जाती है और पुनः उससे अधिक, और अधिक पाने की, संग्रह करने की वृत्ति बलवती बनी रहती है। परिणाम अन्ततः सब कुछ करके भी, सब कुछ पाके भी, सब कुछ होके भी सन्तुष्टि, शान्ति, सुख और आनन्द से दूर ही महसूस होता है। इच्छा पूर्ति होने पर जो हमने एन्जॉय(enjoy) किया यह भी कुछ देर तक। ऐसा कुछ नहीं जो हमारी अपनी ज हो, जिस पर हमारा अधिकार हो, जो स्थायी हो। ऐसा क्यों होता है क्या आपने सोचा, अपने से पूछा या किसी इन विचारों को शेयर(share) किया? नहीं तो आइये हम चलें ज्यादा तर्क किये बिना, ज्यादा कुछ सोचे बिना, एक ऐसे रास्ते पर, जो सच्चा सुखद और शाश्वत है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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