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________________ इन छह आवश्यकों की अपरिहीनता अर्थात् अखण्डता का नाम आवश्यकापरिहीनता है। उस एक ही आवश्यक अपरिहीनता से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है। इसमें शेष कारणों का अभाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पत्ति, व्रतशीलनिरतिचारता, क्षण लव प्रतिबोध, लब्धिसंवेग-सम्पत्ति, यथाशक्ति तप, साधुसमाधि संधारण, वैयावृत्य योग, प्रासुक परित्याग, अरहन्त भक्ति, बहुश्रत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्सलता, प्रवचन प्रभावना और निरतिचारता सम्भव ही नहीं है। षटआवश्यक क्रिया का महत्व कहते हैं आवस्सयपरिहीणो जिणण्णाविराहगो हवे साहू। सो सम्मत्तविहूणो पावेज किमप्पसंसाए॥ ३॥ आवश्यक पालन ना करता श्रमण नहीं वह जिनमत में जिनवर की आज्ञा ना माने सदा भटकता भव वन में। स्वयं रहित वह समदर्शन से आत्म प्रशंसा में रमता मन के इस मिथ्या सुखसेवह कितना भ्रम खुद मेंरखता?॥३॥ अन्वयार्थ : [आवस्सयपरिहीणो] आवश्यकों से परिहीन [ साहू ] साधु [जिणण्णाविराहगो ] जिनाज्ञा का विराधक [ हवे ] होता है। [ सो] वह [ सम्मत्त-विहूणो ] सम्यक्त्व से रहित साधु [अप्पसंसाए ] आत्म प्रशंसा से [किं] क्या [पावेज्ज ] प्राप्त कर लेगा? भावार्थ : हे साधो! अपनी आत्मा को साधने वाला ही साधु कहलाता है। जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि श्रमण षट् आवश्यकों का पालन प्रतिदिन करे । यदि आवश्यकों का पालन नहीं हुआ तो जिनाज्ञा का उल्लंघन होगा। जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से सम्यग्दर्शन कहाँ ठहरेगा? बिना सम्यग्दर्शन के चारित्र सम्यक् कैसे होगा? अरे! लौकिक व्यवहार में लगकर आवश्यक कार्य छोड़ने में कैसी बुद्धिमानी है? विचार करो जो लौकिक लोगों से सम्पर्क रखने में ज्यादा रुचि रखते हैं वे लौकिक श्रमण हैं। श्रमण और लौकिक ये दोनों विरोधी बातें हैं। श्रमण का रूप, श्रमण की चर्या, श्रमण की वार्ता सब कुछ लौकिकता से परे होती है। भवति हि मुनीनामलौकिकीवृत्तिः' अर्थात् मुनियों की वृत्ति तो अलौकिक होती है। अहो लौकिक श्रमण! लौकिक सम्बन्ध तो संसार को बढ़ाने वाला है। प्रतिक्रमण, वन्दना, सामायिक आदि पारिमार्थिकी क्रियाओं को छोडकर लौकिक क्रिया में. व्यर्थ की बातचीत करके मनोरंजन करने में आनन्द ले रहा है, यह तो जिनाज्ञा के विपरीत आचरण है। क्या तुम्हें जिनाज्ञा की विराधना का भय नहीं है? अहो! खेद का विषय है कि प्रतिक्रमण भी एकाग्रता से नहीं करता। प्रतिक्रमण में भी बीच-बीच में बातें करता है। तुझे अपने दोषों का परिमार्जन करने का भाव ही नहीं है। तू भाव प्रतिक्रमण छोड़कर मात्र द्रव्य प्रतिक्रमण कर रहा है। पूर्वाचार्यों के म से चला आया प्रतिक्रमण पाठ भी पूरा नहीं करता है। इतना ज्ञानी हो गया कि उस प्रतिक्रमण को अपनी बुद्धि
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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