SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से शरीर का राग बढ़ता है। आत्मा में राग की अधिकता से पाप का बन्ध और तीव्र होता है। यह हई निश्चय हिंसा। इस तरह अरे गृहस्थ! तू सबेरा होते ही निश्चय पापी बना रहा, पातकी बना रहा। ___माँ जिनवाणी कितनी दयालु है। तेरे इन पापों से तुझे बचाने का उपाय बता रही है। जैन धर्म भावप्रधान है। तू अपना भाव बदल दे, हिंसा के पाप से बच जाएगा। नहाना, धोना, कपड़ा साफ करना आदि के पाप से बचना है तो तू अपना उद्देश्य बदल दे। विचार कर कि मैं मन्दिर जाने के लिए स्नान कर रहा हूँ। मैं भगवान् की पूजा के लिए कपड़े धो रहा हूँ। कपड़े बदल कर मैं आज जिनेन्द्र देव की पूजन करूँगा। तेरे सारे पापों से तुझे मुक्ति मिल जाएगी। दोनों काम बन जाएँगे। पाप से भी बच गया और गृहस्थ का धर्म भी पल गया। इसीलिए कहा है कि श्रावक विवेकवान् होता है। यह तो मुक्ति मिली तुझे नहाने धोने के पाप से। अब तू घर पर भोजन बनाएगा। भोजन सामग्री के लिए अनेक पाप कर्म से धन आदि सामग्री का अर्जन करेगा। बर्तन धोना, घर साफ करना, व्यापार करना इनसे जो पाप का अर्जन करेगा तो कहाँ साफ करने जाएगा? देख! दूसरा उपाय बताया है गुरु की उपासना। गृहस्थी के कार्यों से उपार्जित पाप अतिथि को दान देने से धुलते हैं। मुनि को या यथानुसार प्राप्त पात्र को दान देकर तू गृहस्थी के पापभार से मुक्त हो जा। गुरु के वचनों का श्रवण करना ही स्वाध्याय है। यदि गुरु नहीं हैं तो जिनवाणी को पढ़कर स्वाध्याय कर। थोड़ा सा इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम का पालन कर ले। कभी-कभी अष्टमी या चतुर्दशी को थोड़ा सा आहार आदि के त्याग से अनशन आदि तप का अभ्यास कर। यथाशक्ति थोड़ा ही सही, लेकिन दान प्रतिदिन कर। यह छह आवश्यक कार्य तुझे सम्यग्दृष्टि गृहस्थ बना देंगे। मुक्ति अपने आप तुझे लेने आएगी। बस! पहले इतना पुरुषार्थ तो कर। इस पुरुषार्थ में कमी रहेगी तो आवश्यक कार्य में कमी रहेगी। आवश्यकों में कमी होना धर्म की हानि है। इस धर्म की हानि से वही बचेगा जो धर्म को प्राथमिकता देता हो। धर्म से प्रेम कर। धर्म के वशीभत रहने वाला जीव ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध करता है। अब श्रमण के छह आवश्यक और छह काल कहते हैं आवस्सं छप्पयारं साहेदव्वं हु परमसमणेहिं । छक्कालेहि अवस्सं रयणत्तय-साहणटुं खलु॥२॥ आवश्यक हैं छह प्रकार के परम श्रमण इनको साधे रत्नत्रय के पालनहारे रत्नत्रय को आराधे। शिक्षा, दीक्षा आदि काल जो साथ-साथ में साध रहा श्रमण वही निज चरित धर्म को पाल रहा निर्बाध रहा॥२॥
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy