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________________ पर प्रत्यय का अर्थ है बाह्य कारण। इसी को निमित्त कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी कार्य के लिए उपादान, निमित्त या स्वपर प्रत्यय ही आवश्यक अंग या घटक बताये हैं। बाह्य प्रत्यय जो कि सहकारी कारण है इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चार ही कारण लिए जाते हैं। किसी भी कार्य का उत्पाद इसी सिद्धान्त से होता है और कोई सर्वज्ञ ज्ञान की पराश्रितता नहीं बताई गई है। स्वयं सर्वज्ञ देव ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप वस्तु कही है और उस परिणमन में निमित्त कारणों को भी स्वीकारा है। देखो ! तत्त्वार्थ सूत्र में प्रत्येक द्रव्य के उपकार का वर्णन किया है। वह उपकार वस्तुत: निमित्त कारणों को बताने के लिए है। इन कारणों में जीव द्रव्य के लिए कहा है कि 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् जीव द्रव्य का परस्पर में उपकार है। केवली भगवन्तों का यह महान् उपकार है जो हमें वस्तु तत्त्व का यह सूक्ष्म ज्ञान अपनी दिव्य ध्वनि से दिया है। उसके बाद गणधर परमेष्ठी, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी की परम्परा का हमारे ऊपर महान् उपकार है। यह उपकार भी बाह्य निमित्त के रूप में है। इसमें कहीं भी पराश्रितता नहीं है। प्रियबन्धो! जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है कि स्वतन्त्र आत्म द्रव्य की अनुभूति करो और अनुभूति को छोड़कर जब व्यवहार में प्रवृत्ति करो और तो उन उपकारी के उपकार का भी स्मरण करो। इस तरह निश्चय और व्यवहार को अपनाते हुए पूर्णतः स्वतन्त्र आत्मा बन जाओ। जब हम यह कहते हैं कि हमारा परिणमन सर्वज्ञ ज्ञान के आश्रित है तो हम पराधीन हो जाते हैं। इसी तरह जब क्रमबद्ध पर्याय की बात करते हैं और इस सिद्धान्त को मान्यता देते हैं तो हम पराधीन हो जाएंगे। हमारी सभी पर्यायें जब क्रम से बंधी हैं तो हमें अब कुछ भी करने की गुंजाइश ही नहीं रही। द्रव्य बंध गया। स्वतन्त्र आत्मा की बात कैसे की जा सकेगी? इसलिए भव्यात्मन् ! किन्हीं असंयमी की बातों को इस जिनवाणी में मिलाकर इस शुद्धवाणी को अशुद्ध बनाने का अक्षम्य अपराध मत करो। बार-बार तत्त्व का चिन्तन, मनन करो। हठाग्रह छोड़ना ही मिथ्यात्व को तोड़ना है। भूत, भविष्य और वर्तमान की ये पर्यायें केवलज्ञान में मात्र जानने में आती हैं। ज्ञप्ति(अर्थात् जानना) की अपेक्षा से भगवान् सर्वज्ञ त्रैकालिक पर्यायों को जान रहे हैं। इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है किन्तु उत्पत्ति की अपेक्षा से भगवान् ने यह नहीं कहा कि इन पर्यायों की उत्पत्ति हमारे ज्ञान के अनुसार ही होगी। उत्पत्ति का सिद्धान्त तो कार्य-कारण भाव पर आधारित है। हे आत्मन् ! उन्हीं तथ्यों को स्वीकार करो जो पूर्वाचार्यों ने कहे हैं। एक झूठ को सिद्ध करने के लिए अनेक झूठ बताने पड़ते हैं। एक झूठ को साबित करने में अनेक झूठों का सहारा लिया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे व्रत, तप, संयम को झूठा सिद्ध करने के लिए सर्वज्ञ ज्ञान का सहारा लिया। जैसे कोई किसी छोटी सी बात को कषाय वश बहुत बड़ा बना देता है वैसे ही क्रमबद्ध पर्याय भी बहुत बड़ी बन गई है। पर्याय तो एक समय की होती है, क्षणिक होती है पर कषाय के कारण बहुत समय तक बद्ध रहती है। क्रमबद्ध पर्याय को मानने से क्रमबद्ध कषाय कम हो जाती तो आत्मा में शुद्ध पर्याय की आय हो जाती। हे करुणापात्र ! समूचे आगम में जिस शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है उसका इतना प्रचार। पूर्वाचार्यों ने जिस
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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