SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम की। कारण यह कि दोनों ही मिथ्या हैं। यह कहने का साहस आपको आचार्य समन्तभद्र जैसे उद्भट दार्शनिक विद्वानों के ग्रन्थ पढ़ने से ही आ सकेगा, और कहीं से नहीं । भगवान् सर्वज्ञ की परीक्षा करने का साहस मात्र उन्हीं एक आचार्य में था। उन्हीं एक आचार्य का स्पष्ट उद्घोष है कि भगवान् आप सर्वज्ञ हैं, निर्दोष हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र के अविरुद्ध हैं। यथा ‘स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' आप्तमीमांसा की यह पंक्ति हमारे मन में एक बहुत बड़ा साहस भर देती है। छह द्रव्यों से भरे इस विश्व की व्यवस्था न किसी ईश्वर से चल रही है और न किसी ईश्वर की सर्वज्ञता से । विश्व की व्यवस्था चल रही है उपादान और निमित्त कारणों की समष्टि से । इसी को अन्तरंग और बहिरंग कारण कहते हैं । जिसमें कार्य घटित हो वह उपादान कारण और जो उस कार्य में सहायक हो वह निमित्त कारण है । निमित्त कारण कभी भी कार्य रूप परिणत नहीं होता है किन्तु कार्य को पूर्ण करने में सहायक होता है। आचार्य समन्तभद्र देव ने कार्य संपादन की यही विधि बताई है। संसार भी उपादान और निमित्त के संयोग से चल रहा है और मोक्ष भी उपादान और निमित्त के संयोग से ही होगा। संसार के लिए निमित्त कारण अलग है और मोक्ष के लिए निमित्त कारणभूत अलग हैं। स्वयंभू स्तोत्र में लिखा है कि बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाऽभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥ अर्थात् हे वासुपूज्य भगवन्! आपके मत में कार्य सम्पादित होने में यह बाह्य उपाधि (कारण) और अन्तरङ्ग उपाधि की समग्रता ही सब कुछ है । द्रव्यगत यह स्वभाव ही है । आत्माओं को मोक्ष की विधि अन्य प्रकार से नहीं है इसलिए गणधर आदि बुधजनों से वन्दनीय आप ऋषि हैं। कारण-कार्य की यह व्यवस्था कार्य को उत्पन्न करती है । भगवान् के ज्ञान में दिखने से कोई कार्य नहीं होता है किन्तु कार्य होता है अपने-अपने उपादान और तदनुरूप निमित्तों के संयोगों की मुख्यता से । शुद्ध द्रव्य हों या अशुद्ध द्रव्य कार्य तो इसी प्रकार से होता है। वीतराग सर्वज्ञ भगवान् ने कभी भी अपनी दिव्यध्वनि से ऐसा नहीं कहा कि विश्व का परिणमन हमारे ज्ञान पर आधारित है। जैसा मैं देख रहा हूँ वैसा ही होगा। किसी भी आगम में किन्हीं भी आचार्यों ने ऐसा नहीं लिखा है। सभी आचार्यों को उपर्युक्त कारण-कार्य की व्यवस्था ही स्वीकार्य है । प्रत्येक आचार्य ने यही व्यवस्था मानी है। साक्षात् भगवान् की दिव्यध्वनि का पान करने वाले गणधर परमेष्ठी भी इसी बात को कहे हैं और तभी उन्होंने अंगपूर्व में जिनवाणी को गूंथा है। आत्मा में केवलज्ञान उत्पन्न होता है । सर्वज्ञता सभी को अबाधित सिद्ध है । प्रत्येक द्रव्य का त्रिकाल परिणमन ज्ञान में साक्षात् आता है, यह सब होते हुए भी कार्य की उत्पत्ति उपादान और निमित्त के अनुसार ही होगी।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy