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________________ आगम में उपयोग लगाए रहो। आगम को समझो। आगम से ही पदार्थ व्यवस्था का उचित निश्चय होता है। यह पदार्थ का निश्चय भी क्यों करना? इसका प्रयोजन भी बताया है कि एकाग्रता इसी निश्चय से आएगी। मन एकाग्र होगा तो ध्यान लगेगा। ध्यान से कर्मों का क्षय होता है। कर्म क्षय के लिए कारण- कार्य व्यवस्था है। यह व्यवस्था आगम से शुरु होती है। आगम में चेष्टा करने का तात्पर्य है स्वाध्याय करना। यह स्वाध्याय मुख्य रूप से श्रमण के लिए कहा है। यहाँ प्रवचनसार में श्रमण को एकाग्रता के लिए प्रेरित किया है। एकाग्रता से श्रमणपना बना रहता है। चंचलता से श्रमण के भाव विलीन हो जाते हैं। भगवान् कुन्दकुन्द ने स्वाध्याय उनके लिए मुख्य रूप से कहा है जो बाह्य पुरुषार्थ कर चुके हैं। जो सर्वस्व त्यागी हैं, उन्हें अन्तरंग पुरुषार्थ करना ही बचा रहता है। अन्तरंग पुरुषार्थ में भेद विज्ञान, ध्यान की एकाग्रता आदि आते हैं। इस स्वाध्याय के लिए प्रेरित करने का प्रयोजन ध्यान में विलीन करना था। परन्तु आज स्वाध्याय का विपरीत परिणमन दिख रहा है। स्वाध्याय श्रमणों का मुख्य तप न रहकर श्रावकों का मुख्य धर्म हो रहा है। वह भी उन श्रावकों का जो जिनेन्द्र पूजा को हेय बताकर स्वाध्याय को उपादेय बता रहे हैं। जिनशासन का नाश करने वाली ऐसी बातें स्वाध्याय के फलस्वरूप सामने आ रही हैं। श्रावक बन्धो ! सदैव ध्यान रखना, श्रावक का प्रथम कर्तव्य देवपूजा है। उसके बाद गुरु उपासना है फिर स्वाध्याय का क्रम आता है। देवपूजा को छोड़कर और गुरु निन्दा करके यदि स्वाध्याय करोगे तो यह अक्रम से प्रवृत्ति होगी, उसका फल उलटा ही मिलेगा। और यह उलटापन देखने में भी आ रहा है। स्वाध्याय करने वालों ने यह सार निकाला है कि पूजा तो बन्ध का कारण है और स्वाध्याय निर्जरा का कारण है। बस यही फल की विपरीतता है। इस अक्रम से चेष्टा करने का यह फल दिख रहा है कि स्वाध्याय करके ऐसी विपरीत बातें जहाँ एक ओर हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर स्वाध्यायी एकाग्रमना होने की बजाय कषायाविष्ट, गरु निन्दक, संयमवंचित, प्रमादी और पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं। स्वाध्याय का फल एकाग्रचित्त होकर ध्यानी बनकर कर्म क्षय करना है न कि प्रमादी बनना। इस स्वाध्याय के परिणाम स्वरूप ऐसे अनेक तथ्य सामने आ रहे हैं जो श्री जिनेन्द्रभगवान के अनेकान्त शासन के विपरीत हैं। दुनिया के अनेक धर्मों से यह जिनशासन इसीलिए विशिष्ट है कि इसमें वस्तु के अनेक धर्मों का स्याद्वाद पद्धति से विवेचन किया जाता है। जिस अभिप्राय को मानने से प्रमाद, निरुत्साह, पुरुषार्थहीनता आवे वह अभिप्राय कभी भी जिनशासन में मान्य नहीं है। आचार्यों ने जिनवाणी में यदि कर्म बन्ध के मिथ्यात्व आदि कारण बताये हैं तो मोक्ष के भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय रूप कारणों का वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि कारणकार्य की व्यवस्था जिनशासन में जितनी स्पष्ट और सटीक है, उतनी किसी भी दर्शन शास्त्र में नहीं है। संसार हो या मोक्ष, कर्म बन्ध हो या कर्म क्षय प्रत्येक की सकारण, सहेतुक व्यवस्था है। उलटे स्वाध्याय के जो उलटे परिणाम सामने आये हैं, उनके बारे में यहाँ कुछ विचार किया जाता है। समय-समय पर उनका कथन करेंगे। यहाँ पर एक अवधारणा पर विचार करना है कि केवली भगवान् ने जो-जो देखा है, वही होगा, तुम्हारे करने से कुछ नहीं होगा। सब कुछ क्रमबद्ध परिणमन पर आधारित है। इसी से क्रमबद्ध पर्याय का सिद्धान्त बना लिया और व्रत, संयम, तप के माहात्म्य को अज्ञान की क्रिया सिद्ध कर दिया। पूरे जिनशासन की उलटवार कर दी। जोर-शोर से शिविरों के
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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