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________________ इसलिए कहा जा रहा है संसार का नाश करने का एक ही अचूक उपाय है 'केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पव्वजामि' अर्थात् केवली भगवान् के द्वारा कहा हुआ धर्म। मैं उसी धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ। उसी धर्म की शरण में जाने से संसार की स्थिति का नाश होगा। यह बहुत सरल उपाय है अपने आत्म कल्याण का। यदि यह भी नहीं हो पाता तो इसी जिनागम की तीव्र भक्ति करो। यह दूसरा कारण कहा है संसार को नाश करने का। जिनवाणी की पूजा करो। आचार्य कुन्दकुन्द देव एवं आचार्य पूज्यपाद स्वामी के द्वारा लिखी गई प्राकृत एवं संस्कृत की भक्तियाँ पढ़ो। जिनवाणी की रक्षा करने का अभिप्राय रखो। शास्त्रों के प्रकाशन में अपने धन का उपयोग करो। जैसे दक्षिण भारत में अतिमब्बे नाम की महारानी ने एक गरीब बेटे को पढ़ाया, लिखाया और कन्नड़ साहित्य का महाकवि बनाया। उस कवि का नाम आज भी कन्नड़ साहित्य में अमर है। रन्न कवि के नाम से उसकी ख्याति है। ऐसे व्यक्ति तैयार करो जो साहित्य की सेवा करें। स्वयं ज्ञान से भरे हों और दूसरों को भी ज्ञान से भर दें। ऐसे ही अगर एक माँ अपने या पराये किसी भी पुत्र, पुत्री को जैन धर्म के संस्कार देकर, जैन दर्शन पढ़ाने का महाउपकार करने का संकल्प करे तो यह धर्म बहुत आगे बढ़ता रहेगा। धर्म की परम्परा एक गृहस्थ भी बढ़ा सकता है। हम पढे नहीं हैं तो कोई बात नहीं किसी को पढाकर बहुत बड़ा उपकार कर सकते हैं। यह जिनवाणी की भक्ति से भरे होने पर ही सम्भव है। जब ऐसा ही कोई संकल्प लेना हो तो किसी आत्मा को जैन दर्शन का मर्मज्ञ, किसी भी एक अनुयोग का प्रकाण्ड विद्वान् बनाने का संकल्प लेना। केवल उसे प्रवचनकार बनाकर ही अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं समझ लेना। पर्वज कवियों के जिनवाणी के लिए लिखे गए भजन से भी आत्मा में विशद्धि बढ़ती है जब हम उन्हें पढ़ते हैं और उनका अर्थ समझकर अपनी भक्ति बढ़ाते हैं। वीर हिमाचल से निकसी..........', 'साँची तो गंगा है वीतराग वाणी..........' इत्यादि बहुत से भजन मन को आह्लादित करते हैं। जब जिनवाणी के ज्ञान से और उसकी भक्ति से विशुद्धि बढ़ती है तो आत्मा में कुछ विशेष परिणाम उत्पन्न होते हैं। जो विशेष परिणाम संसार नाश के कारण होते हैं उन्हें करण कहते हैं। करण नाम परिणामों का ही है। इन विशेष परिणामों को तीन प्रकार का कहा है। १. अधःप्रवृत्तकरण २. अपूर्व करण ३. अनिवृत्तिकरण। ये तीनों परिणाम क्रमशः होते हैं। प्रत्येक का समय अन्तर्मुहूर्त का है। तीनों ही परिणाम क्रम से उत्तरोत्तर विशुद्धि के साथ होते हैं। अनिवृत्तिकरण में वह कार्य नियम से पूर्ण होता है। डरो मत! आओ इन परिणामों की परिभाषा को सरलता से समझते हैं। अधःप्रवृत्तकरण- यहाँ ऊपर-ऊपर के समय सम्बन्धी परिणामों के साथ अन्य जीव के नीचे के समय सम्बन्धी परिणाम समान होते हैं इसलिए इसे अधःप्रवृत्तकरण कहा जाता है। अर्थात् वे परिणाम जो अपने बाद के, नीचे के समय सम्बन्धी परिणामों से समानता लिए होते हैं। ये करण परिणाम एक जीव में होते हैं किन्तु समझाने के लिए जो परिभाषा बनाते हैं, उसमें नाना(अनेक)
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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