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________________ ब्रह्माण्ड की यह व्यवस्था सर्वज्ञ प्रणीत है। अन्य लोग तो अंदाज लगाकर अनेक तरह की कल्पनाओं और अनुमानों को बताते हैं जो भौतिक विज्ञान के द्वारा सभी को पढ़ाया जाता है। इसलिए जैन विज्ञान को जानना सम्यग्ज्ञान है। छह द्रव्य बाह्य जगत् की व्यवस्था के लिए हैं तो अन्तर्जगत् की व्यवस्था बताने के लिए सात तत्त्व हैं। इन छहों द्रव्यों में आत्मद्रव्य के अन्दर ही सात तत्त्व घटित होते हैं। जब उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप, असंख्यात प्रदेशात्मक जीव को कहते हैं तो वह जीव द्रव्य कहा जाता है। जब जीव में आस्रव, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष को समझाया जाता है तो वह जीव तत्त्व कहलाता है। द्रव्यगत परिणमन को जीव द्रव्य से जाना जाता है और भावगत परिणमन को जीव तत्त्व से जाना जाता है। जीव तत्त्व अर्थात् जानने-देखने का स्वभाव। जीव तत्त्व कहते ही ज्ञाता, दृष्टा स्वभाव की ओर उपयोग जाता है। संसारी जीवों के जीव तत्त्व में कर्मरूप पुद्गल तत्त्व भी मिश्रित है। इन्हीं जीव और कर्म के मिश्रण से आत्मा में आस्रव तत्त्व घटित होता है। आस्रव तत्त्व अर्थात् कर्मों का आना। कर्मों का आकर आत्मा में बंध जाना बंध तत्त्व है। कर्मों का आना रुक जाना संवर तत्त्व है और कर्मों का आत्मा से थोड़ा-थोड़ा(एकदेश) झड़ना निर्जरा तत्त्व है तथा कर्मों का आत्मा से पूरा सफाया हो जाना मोक्ष तत्त्व है। __ हे तत्त्वज्ञ ! जो छोड़ने योग्य हो उसे हेय कहते हैं । जो ग्रहण करने योग्य हो उसे उपादेय कहते हैं । जो करने योग्य हो उसे विधेय कहते हैं। जो ध्यान करने योग्य हो ध्येय कहते हैं। जो जानने योग्य हो उसे ज्ञेय कहते हैं। इनमें जीव तत्त्व उपादेय है। अजीव तत्त्व कर्म और नोकर्म के भेद से दो प्रकार का है। कर्म को छोडकर शरीर, मन, वचन आदि बाह्य वस्तु नोकर्म हैं। इनमें कर्म हेय है। नोकर्म ज्ञेय है। अपनी आत्मा को छोड़कर चेतन, अचेतन सभी द्रव्य वस्तुतः ज्ञेय हैं। किन्तु प्रारम्भिक दशा में यह नोकर्म कथंचित् हेय भी हो जाते हैं। कर्म के सहायक नोकर्म हेय हैं। आस्रव और बंध तत्त्व भी हेय हैं। संवर, निर्जरा तत्त्व विधेय हैं और मोक्ष तत्त्व ध्येय हैं। हे आत्मन् ! जाग्रत होओ। अपने ज्ञान नेत्रों पर तत्त्व ज्ञान का अंजन लगाओ। हम सभी की आत्मा अनादि काल से कर्मों से लिप्त है। प्रति समय कर्मों का आस्रव और बन्ध हो रहा है। चाहे जीवात्मा किसी भी पर्याय में हो, गरीब हो, अमीर हो, कुरूप हो, सुन्दर हो, पापी हो, पुण्यात्मा हो सभी को प्रतिसमय कर्म का बन्ध होता है। चार कारण सभी आत्माओं में अनादिकाल से मौजूद हैं। सभी की अशुद्ध दशा एक समान है और शुद्ध दशा में भी सभी एक समान आत्माएँ हैं बीच में बहुत सी विचित्रताएँ हैं जो कर्म के कारण देखने में आती हैं। कर्म बन्धन के कारणभूत उन चार कारणों को सर्वप्रथम जानो। इन चार कारणों से ही संसार अनादि से अनवरत चल रहा है। ये चार कारण ही आत्मा में कर्म चौरों को लाने के लिए चार महाद्वार हैं। अनादि से ये चार महाद्वार खुले पड़े हैं। इन्हीं द्वारों से कर्मों ने आकर आत्मा में गहरी पैठ बना ली है। अब ये आसानी से हटने का नाम नहीं लेते हैं। विचार करो! जब कोई किराएदार दो-पाँच वर्ष तक किसी मकान में रह लेता है तो फिर वह उस मकान को खाली नहीं करना चाहता है क्योंकि उसका वह स्थान बन जाता है। उसे खाली कराना कितना
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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