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________________ जहाँ तक जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल ये पाँच द्रव्य पाए जाएँ उतना आकाश लोकाकाश है। इसके आगे जितना आकाश मात्र है वह अलोकाकाश कहलाता है। लोकाकाश का क्षेत्र असंख्यात प्रदेश बराबर है और अलोकाकाश का क्षेत्र अनन्त प्रदेशी है। जैसे हम क्षेत्र की, दूरी को मीटर, किलोमीटर में नापते हैं वैसे ही जैनदर्शन में क्षेत्र को नापने का मात्रक (युनिट) प्रदेश होता है। एक पुद्गल परमाणु जितना क्षेत्र घेरता है उतना एक प्रदेश कहलाता है। प्रत्येक द्रव्य कितने स्थान में समा जाता है या कितना स्थान घेरता है इसको नापने के लिए प्रदेश' युनिट का प्रयोग किया जाता है। यह विषय भगवान् सर्वज्ञ के ज्ञान में ही आता है इसलिए इस ज्ञान को रुचिपूर्वक समझो। यह दुर्लभ वीतराग विज्ञान है। देखो ! एक जीव-आत्मा जब भी कभी कहीं पर रहेगा तो वह असंख्यात प्रदेश बराबर क्षेत्र घेरेगा। प्रत्येक आत्मा असंख्यात प्रदेश वाला है। जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म हो, जिसकी काया एक बिन्दु से भी छोटी दिख रही हो, ऐसे जीव का शरीर भी असंख्यात प्रदेश में ही रहता है। चींटी भी असंख्यात प्रदेश में रहती है। मक्खी, भौंरा, मच्छर भी असंख्यात प्रदेश में रहते हैं और हाथी भी असंख्यात प्रदेश में रहता है। आप सोच रहे होंगे कि लघुकाय जीव भी असंख्यात प्रदेश में रह रहा है और दीर्घकाय जीव भी असंख्यात प्रदेश में रहा है तो असंख्यात का एक नाप क्या हुआ? इसका समाधान यह है कि असंख्यात बहुत प्रकार का होता है। ध्यान रखना कि हमने प्रदेश की तुलना एक परमाणु बराबर क्षेत्र से की है। परमाणु अत्यन्त छोटा पुद्गल का ऐसा भाग है जिसका कोई दूसरा उससे छोटा पुनः भाग न हो सके। जिसका फिर से विभाजन सम्भव न हो वह जैनदर्शन में परमाणु कहलाता है। यह परमाणु किसी भी सूक्ष्मदर्शी से देखा नहीं जा सकता है। विज्ञान में जो अणु, परमाणु पढ़ाये जाते हैं वे सभी अनेक परमाणु के समूह हैं। जैन विज्ञान के अनुसार वे सभी अनेक परमाणु के पिण्ड रूप स्कन्ध हैं। जैन विज्ञान में अणु, परमाणु एक ही वस्तु है। इसलिए एक अत्यन्त छोटा जीव भी असंख्यात परमाणु के बराबर जगह घेरता है। चींटी भी, मक्खी भी, मनुष्य भी और हाथी, घड़ियाल भी असंख्यात परमाणु के बराबर जगह घेरते हैं। इससे यह समझना कि असंख्यात के भेद भी असंख्यात होते हैं। असंख्यात संख्या अनेक प्रकार की है। जिज्ञासु आत्मन् ! यह मत सोचना कि हम जीव के प्रदेश बता रहे थे और यहाँ उसके शरीर के प्रदेश बताने लगे तो दोनों क्या एक ही हैं या भिन्न-भिन्न? ऐसा सोचना आपका स्वाभाविक है। देखो! कोई भी जीव-आत्मा अपने शरीर प्रमाण बराबर ही होता है। जीव-आत्मा का अस्तित्व उसके शरीर को देखकर ही लगाया जाता है इसलिए वस्तुत: जीव-आत्मा के प्रदेश असंख्यात हैं, यह शरीर के माध्यम से जाना जाता है। इसलिए कथंचित् एक ही हैं। जीव-आत्मा अलग है और शरीर का स्वभाव अलग है, उसके प्रदेश अलग हैं इसलिए कथंचित् भिन्न-भिन्न हैं। तीन सौ तैंतालीस (३४३) घन राजू प्रमाण तीन लोक का घनफल है। इन तीन लोक को ही लोकाकाश कहा जाता है। इस लोकाकाश के भी असंख्यात प्रदेश हैं। इस पूरे लोकाकाश में कोई भी जीव हो वह इस लोकाकाश का जो हिस्सा घेरेगा वह असंख्यातवाँ भाग ही कहलाएगा। जीव-आत्मा का यह संकोच-विस्तार स्वभाव होता है, इसके कारण आत्मप्रदेशों का संकाच-विस्तार होकर भिन्न-भिन्न काया का आकार बनता है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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