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________________ आत्मा यदि आत्मार्थी बनकर मोक्षमार्ग पर चले तो वह अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेगा। इसलिए मार्ग पर चलने पर बाधक मत बनो। अपनी कमजोर दलीलों से मार्ग को दूषित मत करो। यह पाप ऐसा है जो मिथ्यात्व का बंध कराता है। आत्मज्ञान पुरुषार्थ सहित आत्मभावना से ही आता है, केवल चर्चा करने से आत्मज्ञान नहीं होता है। अतः धर्म का लायसेंस लो और आगे बढ़ो यही व्यवहार और निश्चय का सही प्रयोग है। अब बहुश्रुत भावना का उपसंहार करते हैं (शार्दूल विक्रीडित छन्द) चत्ता दव्वसुदं पदत्थसहिदं सद्दाउलं भारदं णच्चा णाणसुहारसेण भरिदं णिव्वाउलं सारदं। जे सठवोत्थवियप्पजालरहिदं विण्णाणमित्तं चिदं चिंततीह बहुस्सुदा समरदा सव्वे मए संथुदा॥ ८॥ शब्द, अर्थ, पद की महिमा से विपुल भार श्रुत द्रव्य रहा उसको तज निज ज्ञान सुधा से चित् चिन्मय को जान रहा। निर्विकल्प हो ज्ञान मात्र ही निज आतम अनुभव करते बहुश्रुत समतारत साधक के पद रज की संस्तुति करते॥८॥ अन्वयार्थ : [ पदत्थसहिदं] पद, अर्थ सहित [ सद्दाउलं] शब्दों से पूर्ण [ भारदं] भार देने वाले [दव्वसुदं] द्रव्यश्रुत को [ चत्ता] छोड़कर [णिव्वाउलं ] निर्व्याकुल [ सारदं] सार देने वाले [णाणसुहा-रसेण ] ज्ञान सुधा रस से [ भरिदं] भरे हुए [चिदं] चैतन्य आत्मा को [णच्चा] जानकर [जे] जो [ सव्वोत्थवियप्पजालरहिदं] सभी उठे हए विकल्प जाल से रहित [विण्णाणमित्तं विज्ञान मात्र आत्मा का [ डह ] यहाँ चिंतंति ] चिंतन करते हैं [ बहुस्सुदा ] वे बहुश्रुत [ समरदा ] शम भाव में रत [ सव्वे ] सभी जीव [मए ] मेरे द्वारा [ संथुदा ] स्तुति के पात्र हुए हैं। भावार्थ : यहाँ द्रव्य श्रृत को छोड़कर भावश्रुत में रत रहने वालों की स्तुति की गई है। द्रव्य श्रृत अनेक अर्थ और पदों से सहित होता है। शब्द जाल से भरा हुआ वह द्रव्य श्रुत मन के लिए भार सहित है। किन्तु द्रव्य श्रुत से अपने आत्म तत्त्व की प्रयोजनीय सारभूत, निर्व्याकुल परिणति को जानकर जो श्रमण ज्ञानामृत के रस से भरे अपने आत्मा को चैतन्य मात्र, सभी प्रकार के उत्पन्न हुए विकल्प जाल से रहित, विज्ञान मात्र अनुभव करते हैं वही वस्तुतः समस्त श्रुत के धारक हैं। इन्हें ही भावश्रुतकेवली कहा जाता है। शम भाव में निरत उन भाव श्रृतवान् मुनियों की मैं निरन्तर स्तुति करता हूँ। जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानते हैं वे द्रव्य श्रुतकेवली हैं। ऐसे ऋद्धिधारी महाश्रमण भी जब द्रव्यश्रुत से आत्मा को जानकर मात्र आत्मरस का आनन्द लेते हैं, तभी वह निर्विकल्प समाधि में होते हैं । निर्विकल्प वीतराग स्वसंवेदन काल के समय ही आत्मा का अनुभव होता है। जिस समय आत्मानुभव की यह परिणति होती है वह निश्चय से भाव श्रतकेवली होते हैं। उन भाव श्रतकेवली ने जिनशासन का सार देख लिया है, उन्हें मेरा नमस्कार है।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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