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________________ बहुश्रुत को जानने वाले मुनियों की वन्दना करते हुए दो गाथाएँ हैं विनंति जाणि संपहि सत्थाणि जीवकम्मकंडाणि। सव्वाणि विजाणंति बहुभत्तीए णमंसामि॥ ५॥ हीन काल यम के मुख से जो बचे हुए हैं शास्त्र महा न्याय, पुराण और अध्यातम जीवकाण्ड सिद्धान्त अहा। उन सबको जो जान रहे हैं बहुश्रुत मुनिजन कहलाते उनके चरण कमल की भक्ति मन हरती है सुख पाते॥५॥ अन्वयार्थ :[संपहि] वर्तमान में [जाणि] जितने [सत्थाणि] शास्त्र [ जीव-कम्म-कंडाणि] जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदि [ विजंति ] विद्यमान हैं [ सव्वाणि ] उन सभी को [ विजाणंति ] जो जानते हैं [ बहुभत्तीए ] बहुत भक्ति से [णमंसामि] उन्हें नमस्कार है। भावार्थ : वर्तमान में अनेक शास्त्र उपलब्ध हैं। सभी शास्त्र चार अनुयोगों में किसी न किसी अनुयोग में गर्भित होते हैं । यहाँ विशेष रूप से जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड को जानने वाले आत्मा को नमस्कार किया है। यद्यपि मूल गाथा में यह नहीं लिखा है कि जीवकाण्ड आदि का जानकार आत्मा श्रावक है या श्रमण, फिर भी यहाँ श्रमण का ग्रहण किया है, ऐसा समझना। पूजन, अर्चन नमस्कार के योग्य श्रमण ही होते हैं। ऐसे श्रमण जब विशेष रूप से कम से कम जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदि सिद्धान्तों के ज्ञाता हों तो वह विशेष रूप से नमस्कार योग्य हो जाते हैं। हे आत्मन् ! इन शास्त्रों को अध्यात्म ग्रन्थ कहा है। यह सिद्धान्त ग्रन्थ परम अध्यात्म प्रधान ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों को जाने बिना आत्मा और कर्म का सही श्रद्धान नहीं होता है। समयसार आदि परम अध्यात्म ग्रन्थों का भी रहस्य उन्हें ही समझ में आता है जो इन सिद्धान्त ग्रन्थों के समीचीन ज्ञाता होते हैं। अरे! जीवात्मन् ! जीवकाण्ड को जाने बिना जीवात्मा के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान असम्भव है। इस संसार में अनन्त जीवात्माएँ हैं। वे किन-किन गतियों में किस तरह जन्म-मरण करती हैं। इसका अध्ययन जीवकाण्ड से होता है। यदि कहो कि जीवकाण्ड से तो अशुद्ध आत्मा का ज्ञान होता है और समयसार पढ़ने से शुद्धात्मा का ज्ञान होता है इसलिए हमें जीवकाण्ड आदि पढ़ने से क्या प्रयोजन? यदि तुम इस प्रकार सोचते हो तो निश्चित ही किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो। तुमने जिनवाणी को सम्यक् रीति से नहीं समझा। तुम किसी असंयमी एकान्त निश्चयवादी के उपदेश सुनकर ऐसा कह रहे हो।
SR No.034024
Book TitleTitthayara Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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