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________________ धम्मकहा 8887 (७) शक्ति से तप भावना मन की इच्छाओं के रुक जाने से काय क्लेश के द्वारा चैतन्य आत्मा में लीनता तप है। वह तप बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से बारह प्रकार का होता है। उसमें-अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये बाहरी छः प्रकार के तप हैं। प्रायश्चित्त , विनय, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छः प्रकार के अभ्यन्तर तप हैं। इन तपों में चारों प्रकार के आहार का परित्याग एक, दो, तीन, चार आदि छः मास पर्यन्त तक के लिए कर देना अनशन तप है। || क्षुधा से कुछ कम भोजन करना अवमौदर्य तप है। भोजन, भाजन, गृह, दाता आदि के संकल्प से भोजन करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । छह प्रकार के रसों में दूध, दही, घी, तेल, गुड, नमक के भेद से एक, दो आदि रसों का त्याग कर देना रस परित्याग तप है। तिर्यंच, नपुंसक और स्त्री तथा सरागजनों से रहित एकान्त निर्जन स्थान में शय्यासन करना विविक्त शय्यासन तप है। पल्यंक आसन आदि के द्वारा चिरकाल तक आतापन आदि योग से काय को सन्ताप देना कायक्लेश तप है। गुरु के समक्ष निज दोषों का निवेदन करना प्रायश्चित्त है । रत्नत्रय आदि गुणों की और गुणवानों की पूजा सत्कार करना विनय है। आचार्य आदि १० प्रकार के पात्रों को काया से, मधुर वचनों से और प्रसन्न मन से उनके दुःख को दूर करना वैयावृत्ति है। ख्याति, पूजा, लाभ के लोभ के बिना कर्म निर्जरा के लिए आठ अंगों से सहित शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, लेखन करना, उपदेश देना, चिन्तन आदि करना स्वाध्याय है। अंतरंग, बहिरंग उपधि का परित्याग करना व्युत्सर्ग है। धर्म, शुक्ल ध्यानों में परिणति होना ध्यान है। यह अंतरंग तप है। बाह्य तप कर्म भी अंतरंग तप की वृद्धि के कारण होते हैं इसलिए ही ऋषभदेव ने, बाहुबली भगवान ने और सभी तीर्थंकरों तथा सभी महापुरुषों ने उस बाहरी तप का अनुष्ठान किया है। तप के बिना मोक्ष नहीं होता है। अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति तप से सहज ही होती है। अहो! मन्दोदरी के पिता राजा मय मुनि होकर के निःकाञ्च तप को करते हुए एक सर्वोषधि ऋद्धि को प्राप्त हुए थे। विष्णुकुमार मुनि, विक्रिया ऋद्धि को तप के बल से ही प्राप्त किये थे। शक्ति से अपने वीर्य को नहीं छिपाते हुए तपः कर्म करना चाहिए। सरस आहार और औषधि से उत्पन्न सामर्थ्य को शक्ति अथवा बल कहते है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई आत्मा की शक्ति वीर्य कहलाती है। जैसे- अग्नि ये तप्त हुआ स्वर्ण शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार से कर्म मल से कलंकित आत्मा तपः कर्म से शुद्ध हो जाती है। बारह प्रकार के तपों में ध्यान तप सर्व उत्कृट है। ध्यान के बल से योगी कर्मों को उसी प्रकार चूर्ण कर देता है जैसे वज्र के घात से पर्वत चूर्ण हो जाते हैं। तप के साथ अध्यात्म का योग स्वभाव की उपलब्धि का हेतु है। सत्य ही है "तप का कार्य वास्तव में पाप की हानि है और अध्यात्म का कार्य चिरकालीन मोह की हानि है। दोनों के ही संयोग से स्वभाव की उपलब्धि होती है। यह आत्मा की शद्धि का मार्ग संक्षेप से कहा गया है।"(तीर्थंकर भावणा ४८)
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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