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________________ धम्मकहा 8863 (२३) सुकौशल मुनि की कथा राजा प्रजापाल अयोध्या नगरी में प्रजा का पालन करते हुए रहते थे। वहीं पर एक प्रधान सेठ सिद्धार्थ अपनी ३२ रानियों के साथ सुख से निवास करते थे। सेठ के कोई भी पुत्र नहीं था। इस कारण से जयावती प्रिय रानी पुत्र की प्राप्ति के लिए यक्षों की पूजा करती थी। एक बार दिव्य ज्ञानी मुनि ने रानी को कहा- पुत्री! तुम कुदेवों की भक्ति छोड़कर के जिनधर्म में ही निश्चल हो जाओ जिससे कि ७ दिन के अन्दर तुम्हें गर्भ की विभूति प्राप्त होगी। वह मुनि महाराज के वचनों से संतुष्ट होकर के जिनधर्म में दृढभूत हो गयी। कुछ दिनों के बाद उस रानी को सुकौशल नाम का पुत्र हुआ। पुत्र का मुख देखकर के सेठ नयनधर मुनि महाराज के समीप जाकर मुनि हो गया। मुझ बाल पुत्री को छोड़कर के यह सिद्धार्थ मुनि हो गये है, ऐसा चिन्तन करके वह जयावती अत्यन्त क्रुद्ध होती है। क्या मुनिराज को इस समय दीक्षा प्रदान करना योग्य था? इस प्रकार तर्कणा करके उसने क्रोध से अपने घर में मुनियों का प्रवेश निषेध कर दिया। धीरेधीरे सुकौशल बड़ा हुआ, ३२ स्त्रियों के साथ उसका विवाह हुआ और सभी इन्द्रिय सुखों का वह भोग करने लगा। एक बार महल की छत पर माता, धाय और सुकौशल अपनी स्त्रियों के साथ बैठे हुए नगर की शोभा को देख रहे थे। उसी समय पर दूर से विहार करते हुए चर्या के लिए सिद्धार्थ मुनि आते हुए दिखाई दिये। सुकौशल उनको नहीं जानता हुआ पूछता है, माँ यह कौन है?जयावती क्रोध से कहती है कि यह कोई भी दरिद्र आ रहा है। माँ! यह कोई दरिद्र नहीं हो सकता है क्योंकि यह कोई भी उत्तम लक्षणों के से संयुक्त है। इस प्रकार सुकौशल ने कहा। तब सुनन्दा नाम की धाय सेठानी को कहती है। अपने कुल के स्वामी इन परम मुनिराज के लिए ऐसे वचन शोभा नहीं देते हैं। तू चुप बैठ, इस प्रकार से आँखों से इशारा करके शीघ्र ही वह रानी धाय के साथ चली गई। मैं ठगा गया हूँ। इस प्रकार सुकौशल चिन्ता करता है। तब रसोइया कहता है भोजन की बेला हो गई हैं भोजन कर लेना चाहिए। तदनन्तर माँ ने, धाय ने और उसकी स्त्रियों ने क्रम से सुकौशल को भोजन करने के लिए कहा फिर भी उसने भोजन नहीं किया। सुकौशल ने कहाउस उत्तम पुरुष के विषय में सत्य जानकर ही मैं भोजन करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा। तब सुनन्दा सब कुछ यथार्थ कह देती है। सत्य सुनकर के तत्काल ही सुकौशल अपनी भार्या के गर्भ में स्थित पुत्र को सेठ पद से अलंकृत करके सिद्धार्थ मुनि के समीप जाकर मुनि हो गया। जयावती निरन्तर पति व पुत्र के वियोग से उत्पन्न हुए आर्तध्यान के द्वारा विलाप करती हुई मरण को प्राप्त हुई। मगध देश में मौद्गिल्य पर्वत पर वह व्याघ्री हुई। वहीं पर वह तीनों पुत्रों के साथ सर्वत्र विहार करती रहती है। उसी स्थान पर वे दोनों मुनिराज विहार करते हुए चातुर्मास के उपवास के साथ योग धारण करके स्थित हो गये। योग समाप्त होने पर दोनों मुनिराज आहार चर्या के लिए प्रस्थान किये। रास्ते में जाते हुए व्याघ्री ने उन दोनों को देख लिया। सहसा समक्ष आकर के उस व्याघ्री ने अपने तीनों पुत्रों के साथ क्रम से उनको मारकर खाया। मुनिराज आत्म समाधि के बल से सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में उत्पन्न हुए। सुकौशल मुनि के हाथ के चिह्न को देखकर व्याघ्री को जातिस्मरण हुआ। जिससे अपनी निन्दा करते हुए पश्चात्ताप के द्वारा संसार की निन्दा करती हुई कि 'मैंने अपने ही पुत्र का भक्षण कर लिया। इस प्रकार तीव्र पश्चात्ताप को अपने चित्त में धरण करती हुई सकल संन्यास से मरण करके वह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई। सत्य ही कहा है। "मौद्गिल्य नामक पर्वत पर सिद्धार्थ राजा के पुत्र सुकौशल नाम के मुनिराज को जो पूर्व जन्म में उनकी माता हुई थी ऐसी व्याघ्री ने भक्षण किया तो भी उन्होंने शुभ ध्यान से रत्नत्रय की प्राप्ति की अर्थात् वे श्रेष्ठ फल को प्राप्त हुए।" | (भ.आ.१५४)
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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