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________________ धम्मकहा 8853 (१८) श्रीसेन राजा की कथा मलय देश के रत्नसंचयपुर नगर में राजा श्रीसेन निवास करते थे। उसकी दो रानी थीं। ज्येष्ठ रानी सिंहनन्दिता और छोटी रानी अनिंदिता थी। ज्येष्ठ रानी के इन्द्र नाम पुत्र था और छोटी रानी के उपेन्द्र नाम का पुत्र था। उस नगर में एक सत्यकी नाम का ब्राह्मण अपनी जम्बू नाम की स्त्री के साथ सत्यभामा नाम की पुत्री का पालन करते हुए रहता था। इधर पाटलिपुत्र नगर में एक रुद्रभट्ट नाम का ब्राह्मण बालकों को वेद पढाता था। उसकी दासी का पुत्र कपिल तीक्ष्ण बद्धि | के कारण से छल से वेदों को सुनता था। इसलिए वह वेदों में पारगामी विद्वान हो गया। रुद्रभद्र कपिल के छल को जानकर क्रुद्ध होता है। और बाद में उसने नगर से बाहर निकाल देता है। वह कपिल दुपट्टा सहित यज्ञोपवीत को धरण करके ब्राह्मण के भेष में रत्नसंचय नगर में आ जाता है। सत्यकी ब्राह्मण ने देखा कि यह सुंदर पुरुष वेद का पारगामी पण्डित है। यह मेरी पुत्री के योग्य है, इस प्रकार चिंतन करके उसने सत्यभामा का विवाह उसके साथ कर दिया। सत्यभामा रतिकाल के समय उसकी विट सदृश चेष्टा को जानकर मन में विचार करती है- 'यह कुलीन पुरुष है या नहीं।' संदेह से खेद को प्राप्त हुई वह मौन से रह जाती है। एक अवसर पर रुद्रभट्ट तीर्थयात्रा के निमित्त से रत्नसंचय नगर में आता है। कपिल उसको प्रणाम करके अपने धवल गृह में ले गया। भोजन, वस्त्र आदि से उसका सम्मान करके सबके समक्ष कहता है 'यह मेरे पिता हैं'। एक दिन सत्यभामा रुद्रभट्ट को विशेष भोजन तथा सुवर्ण आदि दान के द्वारा अतिथि सम्मान देती है और बाद में उसके चरणों में बैठकर के पूछती है कि- कपिल के स्वभाव में और आप के स्वभाव में बहुत अंतर दिखाई देता है। क्या यह तुम्हारा वास्तव में पुत्र है? सत्य कहिए। तव रुद्रभट्ट कहता है-हे पुत्री! ये मेरा दासी पुत्र है। इस प्रकार सुनकर के वह विरक्त हो जाती है। वह सिंहनंदिता नामक बड़ी रानी की शरण में चली जाती है। सिंहनंदिता रानी भी उसको पुत्री मानकर के रख लेती है। एक दिन श्रीसेन राजा ने परम भक्ति से विधिपूर्वक अर्ककीर्ति और अमितगति चारण ऋद्धिधारी मुनियों के लिए दान देते हैं। रानी भी राजा के साथ दान देती है। सत्यभामा भी उस समय पर उसकी अनुमोदना करती है। दान के प्रभाव से वह तीनों ही जन भोगभूमि में उत्पन्न होते है। राजा श्रीसेन आहारदान के प्रभाव से परंपरा से शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए। यह आहारदान का फल है। कार्य के आरम्भ से ही सर्वत्र अनुकूलता ही कार्य की सिद्धि है। अ.यो.
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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