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________________ धम्मकहाee47 एकत्रित होता है। उनमें अत्यंत वृद्धपक्षी रात्रि में अपनी भाषा में अन्य पक्षी से कहता है- हे पुत्रो! अब मैं उड़ने में समर्थ नहीं हूँ क्योंकि मैं अतिवृद्ध हूँ। कभी भी भूख से पीड़ित होकर के तुम्हारे पुत्रों का भक्षण न कर लूँ इसलिए प्रातः होने पर मुंह बाँध करके आप लोग चले जाना। सभी कहते हैं कि-पिताजी! आप तो मेरे पूज्य, अति वृद्ध हो ऐसा कैसे संभव है? वृद्ध कहता है कि- भखा व्यक्ति कौन-कौन से पाप नहीं कर लेता? सभी पाप कर सकता है इसलिए उसके आग्रह से सभी प्रातः काल उसका मुँह बाँधकर के चले जाते हैं। उनके चले जाने पर वह वृद्ध अपने ही पैरों से अपने मुख के बंधन को छुड़ा करके उन पक्षियों के पुत्रों को खा लेता था और पुनः अपने पैरों से पहले की तरह मुँह को बाँध करके बैठ जाता था। ४. तदन्तर मैं एक नगर में पहुँचा। उस नगर में एक चोर तपस्वी के रूप को धारण करके दोनों हाथों से मस्तक के ऊपर एक बड़ी शिला पाषाण को उठाकर के दिन में खड़ा रहता था और रात्रि में हे जीव! दूर हटो, मैं यहाँ पर अपने पैर रख रहा हूँ इस प्रकार कहता हुआ भ्रमण करता था, जिससे सभी जीव उससे 'अपसरजीव के नाम से बुलाने लगे। वह चोर गड्ढा आदि स्थान को देखकर सुवर्णादि से सहित एकाकी पुरुष को प्रणाम करते हुए मार करके उसके स्वर्ण आदि धन को ग्रहण कर लेता था। इस प्रकार उसके कपट को कोई भी नहीं जानता है। इस तरह इन चार तीव्र कपट जनों को देखकर के मैंने एक श्लोक लिखा "पुत्र का स्पर्श करने वाली स्त्री, तण का घात नहीं करने वाला ब्राह्मण, वन में काष्ठ मुख पक्षी और नगर में अपसर जीव से चार महा कपटी मैंने देखे हैं।" ऐसा कहकर के कोटपाल को धीरज बंधाकर वह ब्राह्मण सीके में रहने वाले तपस्वी के समीप गया। तपस्वी के सेवकों ने उसे उस स्थान से निकाल दिया। किंतु वह शत्रंध बनकर के पड़ा रहा। यह रात्रि में अंधा है अथवा नहीं है इस प्रकार उसके सेवकों ने शत्रंध तण की काड़ी और अंगुली से नेत्रों को चारों ओर स्पर्श किया। फिर भी वह देखता हुआ भी नहीं देखता रहा। जब आधी रात हुई तो गुफासदृश अंधकूप में रखे हुए नगर के धन का रखना और छोड़ना, उसने देख लिया। उसने रात्रि में जो देखा प्रातः राजा और कोटपाल को वह सब कह देता है। कोटपाल ने वह तपस्वी पकड़ लिया। वह तपस्वी बहुत दण्ड से दुखी हुआ और मरण करके दुर्गति को प्राप्त हुआ। ב ב ב
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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