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________________ धम्मकहा aee 45 (१५) तापस कथा वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में राजा सिंहरथ निवास करते थे। उसकी रानी का नाम विजया था। वहाँ एक चोर कपट से तापस होकर रहता था । वह दूसरे की भूमि को स्पर्श नहीं करता हुआ दिन में हवा में डोलते हुए सीके में स्थित होकर के पंचाग्नि तप करता था और रात्रि में नगर में जाकर के लूट का कार्य करता था। एक समय नगर लुट गया है इस प्रकार सुनकर | के राजा ने कोटपाल से कहा- हे कोटपाल ! सात रात्रि के भीतर चोर को पकड़कर के लाओ अन्यथा अपना सिर लाओ। तदनन्तर चोर को प्राप्त नहीं करता हुआ वह चिंता में निमग्न हुआ अपराह्न काल में बैठा हुआ था। तभी किसी भूखे ब्राह्मण ने उससे भोजन माँगा। कोटपाल ने कहा- हे ब्राह्मण! तुम मेरे अभिप्राय को नहीं जानते हो। इधर तो मेरे प्राणों का संदेह है और तुम मुझसे भोजन माँग रहे हो। इस प्रकार के वचनों को सुनकर के ब्राह्मण ने पूछा- आपके प्राणों का संदेह किस कारण से है? कोटपाल ने कारण कहा, कोटपाल से कारण सुनकर के ब्राह्मण पूछता है कि यहाँ कोई अत्यंत निष्पृही पुरुष रहता है? एक विशिष्ट तपस्वी निवास करता है किंतु उसका यह कार्य संभव नहीं । ब्राह्मण ने कहा कि वह ही चोर होगा क्योंकि वह अत्यंत निष्पृह है। इसी विषय में मेरा कथानक सुनो १. मेरी ब्राह्मणी स्वयं अपने को महासती इस प्रकार से कहती है और बार-बार कहती है कि मैं पर पुरुष के शरीर का भी स्पर्श नहीं करती हूँ। इस प्रकार कहती हुई वह अपने पुत्र को भी अपने शरीर को कपड़े से आच्छादित करके उसे दूध पिलाती है परन्तु रात्रि में वह घर के नौकर के साथ कुकर्म करती है। - २. इस प्रकार देखकर के मुझे वैराग्य हो गया और मैं इसी कारण से तीर्थयात्रा के निमित्त से निकल पड़ा। मार्ग में हितकारी भोजन के लिए बाँस की लाठी के बीच स्वर्ण की सलाखा को मैंने छिपा लिया। आगे गमन करने पर एक ब्रह्मचारी बालक दिखाई दिया। वार्तालाप के अनंतर वह मेरे साथ चल दिया। मैंने उसका विश्वास नहीं किया इसलिए उस लाठी को बड़े यत्न से रक्षा करता था। उस बालक ने जान लिया कि इस लाठी के बीच में कुछ है। एक दिन रात्रि में वह कुम्भकार के घर सोया था । प्रातः काल होने पर जब वह उस घर से दूर आ गया तब माथे के ऊपर लगे हुए जीर्ण तृण को देखकर के कपट से मेरे समक्ष कहता है- हा! हा! मैंने पर तृण को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार कहकर वह लौटा और उस तृण को कुम्भकार के घर में फेंककर के सांय काल मेरे समीप आ गया। तब तक मैं भोजन कर चुका था। वह बालक जब भिक्षा के लिए जाने की इच्छा करने लगा तब मैंने चिंतन किया कि यह अति पवित्र है, दूसरे का तृण भी ग्रहण नहीं करता है, इस विश्वास से मैंने रास्ते में कुत्तों से बचने के लिए उसे वह लाठी दे दी। उस लाठी को लेकर के वह चला गया और आज तक पुनः लौटकर नहीं आया। ३. तदनन्तर महाअटवी में जाते हुए मैंने एक वृद्ध पक्षी को देखा। एक महावृक्ष के ऊपर रात्रि में बहुत पक्षियों का समूह
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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