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________________ धम्मकहा 8839 (१३) धनश्री की कथा लाट देश के भृगुकच्छ नगर में राजा लोकपाल निवास करते था। वहाँ एक धनपाल नाम के सेठ था जो अपनी स्त्री धनश्री के साथ जीवनयापन करता था। धनश्री स्वभाव से ही निर्दयता के साथ तत्पर रहती हुई कुटिल थी। उसने सुंदरी नाम की पुत्री और गुणपाल नाम के एक पुत्र को बड़ा किया। जब धनश्री के पुत्र का जन्म नहीं हुआ था तब उसने एक कुण्डल नाम के पुत्र का पुत्र की तरह से पालन किया था। कालान्तर में धनपाल का मरण हो गया बाद में वह कुण्डल के साथ सहवास करने लगी। | एक बार धनश्री ने कुण्डल से कहा- मैं गुणपाल को गाय चराने के लिए गोखुर में भेज देती हूँ। उस समय पर तुम उसको मार देना जिससे कि हम स्वच्छंदता से रहेंगे। इस प्रकार माता के कहे गए वचनों को सुंदरी ने सुन लिया। वह अपने भाई से कहती है- आज रात में माँ तुम्हें अरण्य में गोधन के साथ भेजेगी। वहाँ पर कुण्डल के हाथों से तुम्हारा मरण होगा इसलिए सावधान रहना। धनश्री रात्रि के अंतिम प्रहर में गणपाल को बुलाकर कहती है- पुत्र! आज कुण्डल को आरोग्य नहीं है, इसलिए गोधन को लेकर के तुम चले जाओ। गुणपाल गोधन को लेकर के अरण्य में चला गया। वहाँ पर एक काष्ठ को वस्त्रों से ढाककर के वह स्वयं छुपकर के बैठ गया। कुण्डल ने जाकर के यह गुणपाल है, ऐसा समझकर के उस ढके हुए काष्ठ पर प्रहार किया। उसी समय पर गुणपाल ने उसे तलवार से मार दिया। घर में जाकर के गुणपाल को धनश्री ने पूछा- कुण्डल कहाँ गया? गुणपाल कहता है कि यह तलवार कुण्डल को जानती है। तदनन्तर रक्त रंजित भुजाओं को देखकर के धनश्री उसी तलवार से गुणपाल का घात कर देती है। भ्राता के मरण को देखकर के सुंदरी मुसल से माँ को मारती है। उसी समय पर कोलाहल होने से कोट्टपाल आ गए। वे धनश्री को पकड़कर के राजा के समक्ष ले जाते हैं । राजा ने उसे गधे पर चढ़ाकर कान नाक आदि के कर्तन रूप दण्ड से दण्डित किया जिससे वह मरण करके दुर्गति को प्राप्त हुई। धर्म का मूल दया में प्रवृत्ति करना है। वह धार्मिक है जो दया हृदय वाला है। सभी तीर्थ में जाना और धर्म के लिए दान देना यह सब कुछ बिना दया के निरर्थक है॥७॥ अ.यो.
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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