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________________ धम्मकहा 033 (१०) धनदेव की कथा जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकडी नाम की नगरी है वहाँ जिनदेव और धनदेव ये दो अल्प धन वाले व्यापारी निवास करते थे। उनमें धनदेव सत्यवादी था। एक बार उन दोनों ने आपस में वचन मात्र से ही संकल्प कर लिया कि व्यापार में जो लाभ होगा उसका आधा-आधा करके हम वितरित कर लेंगे। उस धन को अर्जित करने के लिए वे दोनों दूर देश गए। धन अर्जित करके वे पुण्डरीकडी नगर में वापस लौट आते हैं। जिनदेव धनदेव के लिए लाभ का आधा भाग | नहीं देता यथा अवसर थोड़ा सा दे देता है। धीरे-धीरे आपस में कलह होने लगा। उसका न्याय पहले तो कुटुम्बी जनों द्वारा किया गया पश्चात् महाजनों के द्वारा किया गया। समाधान के अभाव में वह झगडा राजा के पास ले जाया गया। पर पुरुष के साक्षी के बिना व्यवहार से ही संकल्प होने से उन दोनों के बीच में कोई भी नहीं जानता था कि सही बात क्या है? जिनदेव राजा के समक्ष भी कहता है कि आधा-आधा करने का नियमरूप वचन मैंने नहीं किया था। धनदेव कहता है कि इस प्रकार के वचन शपथ के साथ दोनों ने ही किए थे। राजा जब न्याय करने के लिए समर्थ नहीं होता है तब दिव्य न्याय से निर्णय करने की सोचता है। वह घोषणा करता है- हाथों के ऊपर जलते हुए अंगारों को रखा जाए, उसी प्रकार से किया गया। धनदेव के हाथ उस विधान से प्रज्वलित नहीं हुए, किंतु जिनदेव के हाथ प्रज्वलित हो गए अर्थात् जल गए। धनदेव निर्दोष है इस प्रकार सभी ने घोषित किया। तदनन्तर राजा के द्वारा सभी धन धनदेव को दे दिया गया। सभी के द्वारा पूजा, सत्कार और सम्मान सुख को धनदेव ने प्राप्त किया। इसलिए सदा सत्य ही कहना चाहिए। बालपन में, शिक्षाकाल में माता-पिता सहायक होते हैं, दीक्षित होने पर गुरु सहायक होते हैं, धर्म परलोक में सहायक होता है किन्तु मित्र सदा सहायक होते हैं॥२॥ अ.यो.
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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