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________________ धम्मकहा 8819 (६) वारिषेण मुनि की कथा मगध देश के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य का पालन करते थे। उनकी रानी चेलिनी जिनधर्म में लीन मन वाली थी। उनके बुद्धि में निपुण जिनधर्मालु वारिषेण नाम का योग्य पुत्र था जो श्रावक धर्म का पालन करता था। एक बार वह वारिषेण चतुर्दशी की तिथि में रात्रि को श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित थे और धर्मध्यान से अपनी आत्मा का चिंतन कर रहे थे। उसी दिन उद्यान में मगधसुदरी नगरवेश्या ने श्रीकीर्ति सेठानी के कण्ठ में एक मनोहर हार देखा। इस हार के बिना मेरे जीवन का क्या | प्रयोजन? इस प्रकार का विचार करके वह अपने घर में शय्या के ऊपर रोती हुई पड़ी थी। उसी समय पर उस वेश्या में आसक्त विद्युतचोर रात्रि में उसके घर आया। अरे प्रिये! इस प्रकार उदास होकर क्यों पड़ी हो? वह कहती है-यदि यथार्थ में तम प्रेम करते हो तो श्रीकीर्ति सेठानी के कण्ठ का हार लाकर मुझे दो। तब ही मेरा वास्तव में जीवन होगा अन्यथा नहीं। तभी तुम मेरे पति होगे अन्यथा नहीं। वेश्या के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वह चोर उसको आश्वासन देकर के मध्यरात्रि में सेठानी के घर गया। अति निपुण उस चोर ने उस हार को चुरा लिया। बाहर जाते समय हार के प्रकाश से 'यह चोर है' इस प्रकार से जानकर के गृह रक्षकों ने कोलाहल कर दिया। बाद में दौड़ते हुए कोट्टपालों के द्वारा चोर पलायन करने में अशक्य हो गया तब श्मशान में स्थित वारिषेण के समक्ष हार को छोड़कर झाड़ में छुप गया। वारिषेण के समीप हार को देखकर के कोद्रपालों ने कहा-राजन! वारिषेण चोर है। इस प्रकार सुनकर राजा ने कहा-उस मूर्ख का मस्तक छेदकर के ले आओ। चण्डाल ने वैसा ही करने के लिए वारिषेण के मस्तक पर तलवार चलाई। वह तलवार पुष्पमाला के रूप में उसके कण्ठ में परिवर्तित हो गई। उस अतिशय को सुनकर राजा वारिषेण से क्षमा की प्रार्थना करते हैं। विद्युत चोर ने अभयदान प्राप्त करके राजा को समस्त वृत्तांत कह दिया। चोर वारिषेण को घर में पुनः लाने के लिए उद्यत हुआ, परन्तु वारिषेण ने कहा-अब मैं पाणिपात्र में भोजन करूँगा। तदनन्तर वह सूरसेन गुरु के समीप जाकर मुनि हो गए। एक बार वह मुनि राजगृह के निकटवर्ती पलाशकूट ग्राम में आहारचर्या के लिए प्रविष्ट हुए। वहाँ श्रेणिक राजा के अग्निभूत मंत्री के पुत्र पुष्पडाल ने मुनिराज का पड़गाहन किया। चर्या के बाद कुछ दूर बाल्यकाल का मित्र होने के कारण उनको भेजने के लिए पुष्पडाल गए। मैं वापिस लौटता हूँ इस प्रकार वे मुनिराज को क्षीरवृक्ष दिखाते हैं। मुनि ने कुछ भी नहीं कहा। पुनः आगे चलकर मुनि की वंदना करते हैं तो भी मुनि ने कुछ भी नहीं कहा। मुनि पुष्पडाल को हाथ पकड़कर के एकांत में स्थान में ले आये। वहाँ पर वैराग्य का मूल विशिष्ट धर्म का उपदेश सुनकर पुष्पडाल के मन में श्मशान वैराग्य उत्पन्न हो गया, जिससे उसने तपःकर्म ग्रहण कर लिया और उसे तप ग्रहण करा दिया गया। तप को धारण करते हुए भी वह अपनी स्त्री का स्मरण करते रहते हैं।
SR No.034023
Book TitleDhamma Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranamyasagar
PublisherAkalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti
Publication Year2016
Total Pages122
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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