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ઉપદેશમાળા સૂક્ત- રત્ન- મંજૂષા
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३९ पुष्फियफलिए तह पिउघरंमि, तण्हा छुहा समणुबद्धा ।
ढंढेण तहा विसढा, विसढा जह सफलया जाया ॥११॥ ३४६ मा कुणउ जइ तिगिच्छं, अहियासेऊण जइ तरइ सम्मं ।
अहियासिंतस्स पुणो, जड़ से जोगा न हायंति ॥१२॥ १३८ दुज्जणमुहकोदंडा, वयणसरा पुव्वकम्मनिम्माया ।
साहूण ते न लग्गा, खंतिफलयं वहताणं ॥१३॥ १३९ पत्थरेणाहओ कीवो, पत्थरं डक्कुमिच्छइ ।
मिगारिओ सरं पप्प, सरुप्पत्तिं विमग्गइ ॥१४॥ १४० तह पुटिव किं न कयं ?, न बाहए जेण मे समत्थो वि ।
इण्हि किं कस्स व कुष्पिमु?, त्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥१५॥ १३४ फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो अ हणइ मासतवं ।
वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो अ सामण्णं ॥१६॥ २४ जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण ।
सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥१७॥ वरिससयदिक्खियाए, अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू। अभिगमणवंदणनमंसणेण, विणएण सो पुज्जो ॥१८॥ भद्दो विणीअविणओ, पढमगणहरो समत्तसुअनाणी। जाणंतो वि तमत्थं, विम्हियहियओ सुणइ सव्वं ॥१९॥ जं आणवेइ राया, पगइओ तं सिरेण इच्छंति ।
इय गुरुजणमुहभणियं, कयंजलिउडेहिं सोयव्वं ॥२०॥ ९६ जो गिण्हइ गुरुवयणं, भण्णंतं भावओ विसुद्धमणो।
ओसहमिव पिज्जंतं, तं तस्स सुहावहं होइ ॥२१॥