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________________ 84 शिक्षाप्रद कहानिया था और हाँ वहाँ तुमने यह भी लिखवाया था कि यह कुआँ मै अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बनवा रहा हूँ। यहाँ तो तुमने अपने यशोगान के साथ-साथ अपने पूर्वजों को भी खुश करने का प्रयास किया था। अतः इसे भी वास्तविक अथवा सच्चा दान नहीं माना जा सकता। अब धनपाल ने अपने वाणी रूपी तरकश से आखिरी बाण छोड़ा- 'अच्छा, ठीक है वो सब तो, मैंने करोड़ों रुपए खर्च करके एक चेरिटेबल ट्रस्ट बनाया। जिसमें हर रोज भूखों को भोजन कराया जाता है, बीमारों का इलाज किया जाता है, अनाथों को सहारा दिया जाता है, गरीब विद्यार्थियों को छात्रवृति दी जाती है, बाढ़ और भूकम्पादि प्राकृतिक आपदाओं के समय पीड़ितों की यथासम्भव मदद की जाती है। अतः मेरे इस दान से तो करोड़ों लोगों की भलाई होती है। इसलिए आप बाकी सब छोड़ दीजिए। केवल मेरे इसी दान के बदले मुझे स्वर्ग दे दीजिए। इतना तो मेरा हक बनता ही है। अतः हे न्यायशिरोमणि न्याय कीजिए।' धर्मराज बोले- 'सुन रे! ओ दुनिया के महानतम परोपकारी वह दान तुमने अफसरों और मन्त्रियों को खुश करने, टैक्स चोरी करने तथा दस लाख के काम को पचास लाख में लेने के लिए किया था। उसमें भी तुम्हारी दृष्टि स्वार्थ और लाभ की ही थी। तुमने अपने सम्पूर्ण जीवन में जो भी काम किया वह केवल और केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए ही किया। और हाँ एक बात और मैं कहना चाहता हूँ कि तुम ईष्यालु भी बहुत हो। तुम तो कहते हो कि दयामल मेरा परम मित्र है, लेकिन जैसे ही तुम्हें पता चला कि मेरा परम मित्र स्वर्ग में जा रहा है तो लगे तुम उसकी बुराई करने कि उसने तो कभी जीवन में दान किया ही नहीं। और अगर वह स्वर्ग जा रहा है तो एक परम मित्र होने के नाते खुश होना चाहिए था कि चलो, मैं ना सही मेरा मित्र तो स्वर्ग जा रहा है। लेकिन नहीं वो क्यों जा रहा है? यह ईर्ष्या ही तो थी और क्या था? और हाँ सुनते जाओ ये तुम्हारा मित्र स्वर्ग में क्यों जा रहा है वरना तुम नरक में और भी अधिक कुलबुलाते रहोगे कि 'वह स्वर्ग में कैसे चला गया।' और धर्मराज ने दयामल की फाइल माँगी सहायक से तथा फाइल
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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