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________________ 54 शिक्षाप्रद कहानियां देर नहीं लगी कि अब उसके बच्चे बिलकुल स्वस्थ हो चुके हैं। घर पहुँचकर उसने देखा कि जो दीवारें बार-बार गिर जाती थीं, वे भी अपने स्थान पर बिल्कुल ठीक-ठाक खड़ी हैं। पत्नी ने उसका स्वागत करते हुए एक पत्र उसके हाथ में थमा दिया। उस पत्र में लिखा था कि तुम्हें नौकरी पर दुबारा रखा जाता है। इस प्रकार उसके सारे काम एक के बाद एक होते चले गए और वह हँसी-खुशी अपने परिवार के साथ रहने लगा। उधर कृपालु ने अपनी तीर्थयात्रा पूरी की। उसने खूब स्नान किया, पूजा-अर्चना की, देवताओं को खूब फल-फूल और दक्षिणा दी। और अन्त में देवताओं का प्रसाद लेकर वह घर लौट आया। कृपालु ने घर पहुँचते ही देखा कि उसके मित्र दयालु के तो सब काम ठीक हो गए थे। लेकिन, उसके सभी काम पहले ही की तरह बिगड़े पड़े थे। वह तुरन्त दौड़ा गया पण्डित जी के पास और बोलापण्डित जी! ये भगवान् का कैसा न्याय है। मैंने आपके कथनानुसार तीर्थयात्रा पूरी की, पवित्र जल में स्नान किया, देवताओं पर भरपूर मात्रा में फल-फूल चढ़ाए और आशीर्वाद स्वरूप प्रसाद भी प्राप्त किया। इतना सब करने के पश्चात् भी मेरा भाग्य तो रत्ती भर भी नहीं सुधरा । जबकि मेरे मित्र दयालु ने तो तीर्थयात्रा भी पूरी नहीं की। वह तो आधे रास्ते से ही वापस भाग आया । और यहाँ तक कि उसने तो देवता के नाम की भेंट को कुत्ते और भिखारी को देकर महापाप तक किया। लेकिन, फिर भी उसके सब काम बन गए। उसका भाग्य सुधर गया। वह सफल हो गया। फिर मेरे साथ भला यह अन्याय क्यों हुआ? यह सुनकर पण्डित जी मन्द मन्द मुस्कराते हुए बोले- दीन-दुखियों पर दया ही सच्ची तीर्थयात्रा है। वृद्ध, बच्चे, पशु-पक्षी आदि ही सच्चे देवता होते हैं। दयालु ने उन पर दया की है, इसलिए उसे तीर्थयात्रा का पूरा फल मिल गया है। तुमने जीते-जागते देवताओं को छोड़कर निर्जीव मूर्तियों की पूजा-अर्चना की है और वह भी स्वार्थवश । जबकि दयालु ने ये सब जो भी किया निस्वार्थभाव एवं दयावश किया है। इसलिए तुम्हारा
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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