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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 179 सूर्य, चन्द्रमा, मेघ, पेड़, नदी, गायें तथा सज्जन ये सब पृथ्वी पर परोपकार के लिए स्वयं उत्पन्न हुए हैं। अतः आप मेरी अनुमति के लिए व्यर्थ ही आए आपको तो सीधे ही स्वीकार कर लेना चाहिए था। और हाँ मैं तो जैसे आपकी सेवा यौवन में करती हूँ वैसे ही वृद्धावस्था में भी करूँगी। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।' तत्पश्चात् कर्ण ने आकर सारी बात ब्राह्मण देवता को बतलाई और कहा कि- 'मुझे न केवल अनुमति अपितु, परोपकार करने की महान् शिक्षा भी प्राप्त हुई है। अतः मैं आपको अपना यौवन देने को तैयार हूँ।' इतना सुनते ही ब्राह्मण वेशधारी भगवान् विष्णु ने अपना वास्तविक रूप प्रकट करते हुए कहा कि- 'वे तो उसकी परीक्षा ले रहे थे, जिसमें वह उत्तीर्ण हो गया है। ८६. सेवा मन का पवित्र भाव एक बार एक साधु किसी गाँव मे प्रवचन कर रहे थे। वे प्रवचन में अच्छी-अच्छी बातें बता रहें थे। यही सब बातें बताते - बताते उन्होंने कहा कि- 'मुझे लोगों के प्रति इतनी सहानुभूति है कि मैं उनके उपकार के लिए नरक में भी जाने को तैयार रहता हूँ।' प्रवचन समाप्त होने पर एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला- हे मुनिवर ! मेरे पास कपड़े नहीं है अतः तन ढ़कने के लिए मुझे कपड़ों की आवश्यकता है'। इतना सुनते ही साधु ने तुरन्त अपने वस्त्र उतार कर उस व्यक्ति का दे दिए। संयोगवश उस प्रवचन सभा में एक गृहस्थ ऐसे भी मौजूद थे जो प्रवचन की गहराईयों को समझते थे। वे तुरन्त साधु के पास जाकर बोले'आप झूठ बोलते हो और झूठ बोलने वाले का इस प्रवचन की गद्दी पर बैठने का कोई हक नहीं है। अतः आप इससे नीचे उतर जाओ। ' यह सुनकर साधु आश्चर्यचकित होते हुए बोला- 'मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई? जो आप मुझे ऐसा कह रहे हैं। '
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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