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________________ 174 शिक्षाप्रद कहानिया सुख की इच्छा ही स्वयं अपनी और दूसरों के दुःख का कारण बनी हुई है। लौकिक सुखों से प्राप्त होने वाला सुख स्थायी नहीं होता। कहा भी जाता है कि- तत्सुखं यत्र नासुखम्। अर्थात् सुख वही है जिसमें दु:ख न हो। शास्त्रों में पुरुषार्थ चार कहे गये हैं। यथा-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मनुष्य पुरुषार्थ प्रधान है इसलिए वह लौकिक एवं अलौकिक सभी क्षेत्रों में पुरुषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता। इनमें से अर्थ व काम पुरुषार्थ को सभी जीव रुचिपूर्वक ग्रहण करते हैं, परंतु धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ को प्रत्येक जीव ग्रहण नहीं करता यही सबसे बड़ा दुःख का कारण है। ___यद्यपि इन दोनों पुरुषार्थों में धर्म पूर्ण रूप होने से मुख्यतः लौकिक सुख को देने वाला है और मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् परम सुख को देने वाला है। जैन दर्शन में मोक्ष के मुख्य रूप से दो भेद किये गए हैं- द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष। शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्टकर्मों की आत्यंतिकी निवृत्ति द्रव्य मोक्ष है और सभी विकारी अथवा प्रमादी भावों की निवृत्ति भाव मोक्ष है। आयु के अंत में यह जीव स्वाभाविक उर्ध्व गमन होने के कारण लोक के शिखर पर चला जाता है, वहाँ वह अनंत काल तक अनंत अतींद्रिय सुख को भोगता है। पुनः शरीर धारण करके जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। जिस प्रकार दुध में से घी निकालने पर दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, गेहूँ के दाने का भूनकर बोया नहीं जा सकता, तिल में से तेल निकालने के बाद दोबारा नहीं मिलाया जा सकता, स्वर्ण-पाषाण में से एक बार सोना निकालने के बाद नहीं मिलाया जा सकता, उसी प्रकार जो जीव एक बार मुक्त हो जाता है, वह पुनः शरीर धारण नही करता। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष ही परम सुख है। ८४. स्वावलम्बन का पाठ कुछ समय पुरानी बात है। एक दिन पश्चिम बंगाल के एक छोटे रेलवे स्टेशन पर सूटेड-बूटेड युवक उतरा और कुली-कुली कहकर
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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