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________________ 161 शिक्षाप्रद कहानिया आसक्त न हो तो वह कदापि प्रदूषण की वृद्धि में किंचित् भी योगदान नहीं कर सकता। जब भी कोई मनुष्य हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करने की ओर कदम बढ़ाता है तो हम समझते हैं कि इसके पीछे या तो उसका अज्ञान उत्तरदायी होता है। अथवा उसके राग-द्वेष। ध्यान रहे राग-द्वेष के अन्तर्गत मन के सभी विकारी भाव यथा-क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, ईष्यादि समाहित हो जाते हैं। अतः प्रदूषणों की संख्या में मानसिक प्रदूषण की गणना करना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। मानसिक प्रदूषण को केवल एक कोटि का नहीं बल्कि सर्वप्रथम कोटि का प्रदूषण मानना चाहिए ऐसा हमारा विनम्र मत है। ७१. जीने की कला 'वर्तमान' (जो अभी चल रहा है) में जीना भी एक विशिष्ट कला है, लेकिन बहुत कम लोग इस कला को जानते हैं। हममें से अनेक लोग ऐसे हैं जो एक घण्टे में से उनसठ (59) मिनिट अतीत (जो बीत गया है) की ही सोचते रहते हैं। इस दौरान हम अपने खोये हुए अवसरों का ही शोक मनाते रहते हैं या फिर भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं जो कि अभी आया भी नहीं है और उसके बारे में अच्छा या बुरा होने के संशय को अपने गले में बाँधे रहते हैं। बहुत से लोग अतीत में हुई अपनी असफलताओं का भार तथा आने वाले भविष्य की कल्पना में ही अपने आपको बर्बाद कर लेते हैं। हमें वर्तमान कार्य करते हुए भविष्य के प्रति चिन्तित नहीं होना चाहिए, क्योंकि भविष्य की डोर हमारे हाथ में होती ही नहीं और न ही अतीत के सम्बन्ध में सोचकर पश्चाताप ही करना चाहिए क्योंकि जो बीत गया सो बीत गया उसे तो वापस लाया नहीं जो सकता। हाँ इतना अवश्य करना चाहिए कि जिस भी कार्य के कारण हमें पश्चाताप हो रहा है वह कार्य भविष्य में कभी घटित नहीं हो- ऐसा प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। __ हमें सच्चाई का आँचल पकड़कर आगे बढ़ना चाहिए तथा कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का समय ही हमारे पास ऐसा समय है जिसे हम सम्भव तौर पर जी सकते हैं, जिसका आनन्द उठा सकते
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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