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________________ शिक्षाप्रद कहानियां 127 जिनदत्त को सान्तवना जरूर देनी चाहिए तथा और मैं दे भी क्या सकता था? बस, यही सोचकर मैं उसके घर चला गया। संध्या की वेला (समय) थी। भोजन का भी समय हो गया था। मेरे पहुँचते ही जिनदत्त ने सेवकों को मेरे लिए भोजन लाने को कहा। मैंने उससे कहा, 'भाई! भोजन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ! मैं तो तुम्हें सान्तवना देने के लिए आया था।' यह सुनकर जिनदत्त बोला, हाँ भाई यह सत्य है कि लुटेरों ने मेरा काफी माल लूट लिया। जिससे मुझे काफी नुकसान हुआ है। लेकिन, मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने जीवन में किसी को लूटना तो दूर वाणी से अपशब्द तक नहीं कहे । मैं तो भगवान् का कृतज्ञ हूँ कि लुटेरों ने मेरी नश्वर सम्पत्ति का ही कुछ भाग लूटा है, सारा नहीं। उन्होंने मेरी शाश्वत सम्पत्ति को तनिक भी हाथ नहीं लगाया। और वह शाश्वत सम्पत्ति है- भगवान् के प्रति मेरी दृढ़ श्रद्धा । जिसे कोई नहीं छीन सकता। यही मेरे जीवन की कमाई और सच्ची सम्पत्ति है। अतः मुझे जरा भी दुःख नहीं है तुम तो खुशी-खुशी भोजन करो। सेठ जिनदत्त की बात सुनकर मेरी भी समझ में बात आ गई और उसी दिन से मैं भी लगा हुआ हूँ भगवान् की भक्ति में। अतः मेरी दृष्टि में तो जिनदत्त सच्चा भक्त है और जिनदत्त जैसा ही सच्चा भक्त होता है। भगवान् के वास्तविक स्वरूप की भक्ति करके भी अगर हम इस नश्वर सम्पत्ति में ही रचे-बसे रहे तो हम सच्चे भक्त कभी नहीं बन सकते है। ५२. भूत - भविष्य की चिंता क्यों ? हम में से अधिकांश व्यक्ति भूत व भविष्य की चिंता में डुबे रहते हैं। जिससे हमारा वर्तमान भी दुखदायी बन जाता है। कहा जाता है कि- शानदार भूत था, भविष्य भी महान् है, अगर हम सम्भाल लें, जो कि वर्तमान है। देखिए, कितनी अच्छी बात है कि अगर हम अपने वर्तमान को ठीक कर लें तो भूत और भविष्य तो अपने आप ही सुधर जाएंगे। और यह एक यथार्थ सत्य है कि भय और आशा हमें प्राप्त सुख
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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