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________________ शिक्षाप्रद कहानिया 109 अपना दुश्मन समझने लगा। अपनी दुश्मनी निकालने के लिए ही उसने मुझ पर झूठा इल्जाम लगाकर मुझे फंसा दिया और सजा दिलवा दी। अब राजा ने तीसरे कैदी से भी वही सवाल पूछा। वह बोला- महाराज, घोर अनर्थ हो रहा है आपके राज्य में। आपका कोतवाल मुझ से रिश्वत माँग रहा था। जब मैंने उसे रिश्वत नहीं दी तो उसने मुझे भी झुठे आरोप लगाकर फँसा दिया। राजा ने तुरन्त बड़े अधिकारियों को बुलाया और पूछा कि क्या ये सत्य कह रहे हैं? इससे पहले तो हमारे राज्य में ऐसा काम कभी नहीं हुआ। फटाफट जाओ और हकीकत का पता लगाओ। चौथा कैदी विनम्रतापूर्वक सिर झुकाकर खड़ा था। आगे बढ़कर राजा ने उससे भी वही प्रश्न किया जो बाकी के तीनों से किया था। लेकिन कोई जबाव न देकर वह उसी तरह सिर झुकाए खड़ा रहा। राजा ने थोड़ा झुंझलाकर कहा- 'क्या तुमने मेरा प्रश्न सुना नहीं? वह बोलाअच्छी तरह सुन लिया महाराज! लेकिन, मैं सोच रहा हूँ कि क्या जबाब दूँ और कैसे ढूँ। सिर झुकाए ही वह बोला। ___ यह सुनकर राजा बोला- तुम निर्भय होकर सत्य बोलो। जो तुम्हारे साथ हुआ वह सच-सच बताओ। डरने की कोई जरुरत नहीं है। अगर तुम्हारे साथ कोई अन्याय हुआ होगा तो तुम्हें अवश्य ही न्याय मिलेगा। वह बोला- महाराज, मैं आपके राज्य का एक गरीब लकड़हारा हूँ, घर में मेरी माँ बीमार थी। उसकी जान बचाने के लिए दवाई चाहिए थी। दवाई के लिए पैसे मेरे पास थे नहीं। मैं पैसे के लालच में इन तीनों चोरों के साथ मिल गया। इन्होंने मुझे आश्वासन दिया था कि तुम्हें खूब सारे रूपये मिलेंगे। अतः मैंने भी इनके साथ मिलकर चोरी की है। चोरी करना महान् अपराध है और अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए। इसलिए
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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